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________________ पतजलि ने अष्टाग योग मे धारणा, ध्यान और समाधि-इन तीन अगों का प्रतिपादन किया है। वौद्ध साधना पद्धति मे समाधि का अर्थ चित्त और चैतसिक का दृढ स्थिरीकरण है। मन ध्यान-वस्तु मे स्थिर हो जाता है, क्योकि मन के साथ रहने वाले मानसिक तथ्य (चैतसिक) पवित्र होते है और वे मन को स्थिर होने मे सहयोग देते है। दृढ़ स्थिरीकरण का अर्थ है --मन का एक वस्तु मे स्थिर होना। इसमे और किन्ही वाधाओ और टोपो का समावेश नही होता। जैन साधना पद्धति मे समाधि का अर्थ है-शुद्ध चैतन्य का अनुभव या चित्त का समाधान या चित्त का सन्तुलन । धारणा, ध्यान और समाधि-ये तीनो एक ही तत्त्व की तीन अवस्थाए है। धारणा का प्रकर्प ध्यान और ध्यान का प्रकर्प समाधि है। धारणा चित्त की एकाग्रता से शुरू होती है, ध्यान मे एकाग्रता परिपुष्ट हो जाती है और समाधि मे वह निरोध की अवस्था मे वदल जाती है। चित्त की एक वृत्ति के शान्त होने पर दूसरी वृत्ति उसी के अनुरूप उठे और उस प्रकार की अनुरूप वृत्तियो का प्रवाह चलता रहे, उसका नाम चित्त की एकाग्रता है। चित्त की मूढ अवस्था मे राग और द्वेप का उदय प्रवल होता है, इसलिए उसमे सतुलित एकाग्रता नहीं होती। उस अवस्था मे असतुलित एकाग्रता आर्त और रौद्र ध्यान की एकाग्रता हो सकती है किन्तु आत्मिक विकास के लिए उसका कोई उपयोग नही है। वह दोपपूर्ण एकाग्रता है। वह सतुलित चित्त की एकाग्रता मे वाधक वनती है। विक्षिप्त और यातायात चित्त की एकाग्रता सामयिक होती है। जिस समय चित्त मे स्थिरता प्रकट होती है, उस समय अस्थिरता तिरोहित हो जाती है। कुछ समय वाद अस्थिरता आती है और स्थिरता चली जाती है। इन दोनो भूमिकाओ के साधक कभी अपने को समाधि अवस्था मे अनुभव करते है और कभी असमाधि अवस्था मे। उनका आचरण वार-बार बदतता रहता है। श्लिप्ट और सुलीन चित्त की इन दो भूमिकाओ मे एकाग्रता का मूल सुदृढ होता है। श्लिप्ट चित्त की एकाग्रता को धारणा और सुलीन चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जा सकता है। इन दोनो को एक शब्द मे धर्म्यध्यान कहा जा सकता है। ११४ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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