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________________ इस प्रकार अनेक पद्धतिया है, जिनके द्वारा निर्विचार ध्यान को सुलभ वनाया जा सकता है किन्तु उन सब में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पद्धति है -अप्रयत्न-प्रयत्ल का विसर्जन। २७ शुद्धचेतन्यानुभव. समाधिः॥ २८ विकल्पशून्यत्वेन चित्तस्य समाधानं वा।। २६ संतुलनं वा॥ ३० रागद्वेषाभावे चित्तस्य समत्व संतुलनम्।। ३१ समत्व-विनय-श्रुत-तपश्चारित्रभेदात् स पञ्चधा। ३२. रागद्वेप-विकल्पशून्यत्वात्, मान-विकल्पशून्यत्वात्, चित्तस्थैर्यानुभवात्, भेद-विज्ञानानुभवात्, समत्वादीनिसमाधिपदवाच्यानि॥ २७ शुद्ध चेतन्य के अनुभव को समाधि कहा जाता है। २८ विकल्पशून्यता होने पर चिन समाहित हो जाता है, उसे भी समाधि कहा जाता है। २६ सतुलन को भी समाहित कहा जाता है। ३० रागद्वेप के अनुदय मे चित्त की समता का प्रकट होना सतुलन है। ३१ समाधि के पाच प्रकार है १ समत्व ३ श्रुत २ विनय ४ तप ५. चारित्र ३२ समत्व मे रागद्वेपात्मक विकल्प नही होता इसलिए उसे समाधि कहा जाता है। विनय मे अभिमान का विकल्प नही होता इसलिए उसे समाधि कहा जाता है। श्रुत मे चित्त की स्थिरता का अनुभव होता है इसलिए उसे समाधि कहा जाता है। तप और चारित्र मे भेट-विज्ञान का अनुभव होता है इसलिए उन्हे समाधि कहा जाता है। - समाधि समाधि का अर्थ-चित्त की एकाग्रता और उसका निरोध। महर्षि मनोनुशासनम् । ११३
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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