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________________ रूपातीत ध्यान मे अरूप आत्मा का आलम्बन लिया जाता है। हम उसे साक्षात् देख नही पाते है। शाब्दिक ज्ञान के द्वारा उसके स्वरूप को निश्चित कर उस पर मन को एकाग्र करते है। रूपातीत ध्यान शाब्दिक भावना के माध्यम से होता है। वह माध्यम निरालम्बन ध्यान की स्थिति में ही छूट सकता है। आचार्य रामसेन नं रूपस्थ और रूपातीत दोनो को पिण्डस्थ ध्यान माने जाने के अभिमत का उल्लेख किया है। उसका आशय यह है कि ध्येय-अर्थ ध्याता के पिण्ड (देह) में स्थित होकर ही ध्यान का विपय वनता है, इसलिए चेतन और अचेतन दोनो का ध्यान पिण्डस्थ ध्यान कहलाता ध्यातु. पिण्डस्थितश्चैव, ध्येयोऽर्थो ध्यायते यत.। ध्येयं पिण्डस्थमित्याहुरतएव च केचन।। -तत्त्वानुशासन-१३४ २६. निर्विचारं निरालम्बनम्।। २६ निर्विचार (विचारातीत, भावातीत या विकल्पातीत) ध्यान को निरालम्बन कहा जाता है। निरालम्बन ध्यान सालम्वन ध्यान का अभ्यास करते-करते मन दीर्घकाल तक एकाग्र होने लग जाता है। एकाग्रता की अन्तिम परिणति विचार-शून्यता है। ध्यान के आरम्भ काल मे किसी एक लक्ष्य पर चित्त की एकाग्रता होती है और अन्त मे वह लक्ष्य छूट जाता है। केवल चित्त की स्थिरता रह जाती है। इसीलिए अनेक साधको का यह अनुभव है कि सालम्वन ध्यान म योग्यता प्राप्त कर लेने पर निरालम्वन ध्यान की योग्यता स्वय प्राप्त हो जाती है। ___कुछ साधक भिन्न प्रकार से सोचते है। उनका चिन्तन है कि सालम्वन ध्यान परावलम्वी ध्यान है। उनकी दृष्टि मे उसकी उपयोगिता नही है। उनका मानना है कि प्रारम्भ से ही विचार-शून्यता का अभ्यास करना चाहिए। मनोनुशासनम् / १११
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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