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________________ जप पदस्थ ध्यान की पूर्वावस्था है। प्रारम्भ मे वाचिक जप का अभ्यास करना चाहिए । उसका अभ्यास हो जाने पर उपाशु जप का अभ्यास होना चाहिए। उसके पश्चात् मानसिक जप का अभ्यास करना चाहिए। मानसिक जप की अवस्था जव ध्येय पर एकाग्र हो जाती है, तव वह पदस्थ ध्यान के रूप मे वदल जाती है । वाचिक जप मे पट का उच्चारण स्थूल होता है । उपांशु जप मे वह सूक्ष्म हो जाता है । मानसिक जप मे वह चिन्तन का आकार ले लेता है । पदस्थ ध्यान मे वह दृश्य बन जाता है । पदस्थ ध्यान के लिए इष्ट मत्रो का चुनाव अपनी भावना, रुचि और श्रद्धा के आधार पर किया जा सकता है । रूपस्य और रूपातीत ध्यान द्रव्य दो प्रकार के होते है-रूपी और अरूपी । आत्मा अरूप है । पुद्गल रूपी है । वह रूपी होने के कारण इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है । आत्मा का इन्द्रिय के द्वारा इसलिए ग्रहण नहीं होता कि वह अरूप है। ध्यानकाल मे ये दोनो प्रकार के द्रव्य ध्येय बनते है । रूपी ध्येय स्थूल होता है और अरूपी ध्येय सूक्ष्म । इसीलिए साधक प्रारम्भ मे रूपी ध्येय का आलम्बन लेता है । उस पर मन की एकाग्रता सध जाने पर वह अरूपी ध्येय पर ध्यान का अभ्यास करता है । रूपी ध्येय मे परमाणु से लेकर किसी बडे से वडे आकार का आलम्बन लिया जा सकता है । वैसे पिण्डस्थ ध्यान भी रूपस्थ ध्यान से भिन्न नही है । शरीर स्वय रूपी है । उस पर ध्यान करना रूपस्थ ध्यान ही है । शब्द भी रूपी है । उस पर ध्यान करना भी रूपस्थ ध्यान है । किन्तु शरीर और शब्द की अपनी विशेषता है, इसलिए उन्हे रूपस्थ ध्यान से पृथक् स्थान दिया गया है। शरीर मे चैतन्य की अभिव्यजना होती है, इसलिए बाहरी रूपी ध्येयो की अपेक्षा शरीरगत ध्येय अधिक सफल होता है । शब्द का भी चैतन्य केन्द्र से निकट का सम्वन्ध होता है, इसलिए उसका भी अपना विशेष महत्त्व है । शरीर और शब्द के अतिरिक्त शेप जितने रूपी ध्येय होते है, वे सव रूपस्य ध्येय की कोटि आते है । ११० / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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