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________________ शरीर मे अग्नि का स्थान मणिपूर चक्र या नाभिकेन्द्र है। हमारे तैजस शरीर का मुख्य केन्द्र यही है। इस स्थान मे तैजस का दृढ और चिरन्तन चिन्तन करने से तैजस शरीर जागृत और अधिक क्रियाशील हो जाता है। दृढ सकल्प के द्वारा उसे सक्रिय बनाकर उसके द्वारा समस्त दोषो के क्षय होने का अनुभव किया जाता है। इस प्रकार आग्नेयी धारणा के द्वारा दोषक्षय की क्रिया सम्पन्न की जाती है। इसके पश्चात् तीसरी कक्षा मे मारुती धारणा का उपयोग किया जाता है। पवन का काम सफाई करना है। आग्नेयी धारणा के द्वारा दोषो का दहन होने पर जो भस्म हो जाती है, उसे शरीर के वाहर ले जाने के लिए मारुती धारणा का प्रयोग किया जाता है। समूचे शरीर मे चारो ओर से तेज हवा का प्रवेश हो रहा है और वह नाभिकमल स्थित भस्म को उडाकर वाहर ले जा रही है। इस प्रकार की तीव्र अनुभूति करते-करते साधक को आत्मस्थता का अनुभव होने लगता है। चौथी कक्षा मे अवशेषो की शुद्धि के लिए वारुणी धारणा का उपयोग किया जाता है। मारुती धारणा के द्वारा दोष-भस्म को बाहर ले जाने पर भी जो कुछ शेष रह जाता है, उसे वारुणी धारणा के द्वारा साफ कर दिया जाता है। साधक अनुभव करता है कि गहरे बादल उमड रहे है। घनघोर वृष्टि हो रही है। उसका जल शरीर में प्रवेश कर नाभिकमल को पखाल रहा है और वह अत्यन्त निर्मल हो रहा है। इस निर्मलता की अनुभूति के साथ अपने आत्मस्वरूप की निर्मलता मे विलीन हो जाए और फिर धारणा से ध्यान की स्थिति मे पहुच जाए। धारणा के अनेक रूप और प्रकार हो सकते है। इसलिए इसकी व्याख्या भी अनेक रूपो में की गई है। पार्थिवी द्रव्यो-चित्र, मूर्ति आदि पर चित्त को स्थिर करना पार्थिवीं धारणा है। ____दीप आदि तेजोमय पदार्थ पर दृष्टि को स्थिर करना आग्नेयी धारणा है। वायु के स्पर्श का श्वास-प्रश्वास पर मन को स्थिर करना मारुती धारणा है। जलाशय के तट पर बैठकर शान्त जल पर दृष्टि को स्थिर करना १०८ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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