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________________ सिर से पाव तक और पाव से सिर तक प्रत्येक अवयव को देखने का अभ्यास पुष्ट हो जाए और दर्शन के साथ-साथ चैतन्य का कण-कण झकृत हो जाए तब एक साथ कई अवयवो पर मन को ले जाना चाहिए। इसका अभ्यास पुष्ट होने पर समूचे शरीर पर एक साथ मन को ले जाना चाहिए। इस अभ्यास से मन पर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है। फिर हम उसे जहां ले जाना चाहे वहा वह चला जाता है और जहा स्थिर करना चाहे वहा वह स्थिर हो जाता है। प्रेक्षा मे विशेप ध्यान देने योग्य यह है कि अप्रमाद निरन्तर वना रहे। प्रिय सवेदन के प्रति राग और अप्रिय सवेदन के प्रति द्वेष न जागे। एकाग्रता का अभ्यास परिपक्व हो, वह प्रेक्षा का उद्देश्य नही है। पर वह इसका सशक्त साधन है। वह इससे सधती है। पहले से सधी हुई हो तो प्रेक्षाकाल मे वह बहुत उपयोगी बन जाती है। चित्त को किसी निश्चित देश मे स्थिर करना धारणा है। वह शरीर या उससे भिन्न अन्य वस्तुओ पर की जा सकती है। देहाश्रित धारणाए पिण्डस्थ ध्यान की कोटि मे समाविष्ट होती है। धारणा के चार प्रकार 쿵 १. पार्थिवी ३. मारुती २. आग्नेयी ४. वारुणी इनका सम्बन्ध पार्थिव, तैजस, वायवीय और जलीय तत्त्वो से है। साधक ध्यान करने के लिए बैठे और यदि उसे दैहिक धारणाओ के द्वारा पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करना हो तो वह सर्वप्रथम किसी विशाल और निर्मल स्थान पर बैठने की अनुभूति करे और उस अनुभूति को इतना पुष्ट वनाए कि उसे प्राप्त अनुभूति मे तन्मयता प्राप्त हो जाए। उस विशाल और निर्मल आसन पर स्थित होकर अपने पार्थिव शरीर मे असीम शक्ति का अनुचिन्तन करे। यह धारणा की पहली कक्षा-पार्थिवी धारणा है। __ आचार्य रामसेन पिण्ड (देह) की सिद्धि और शुद्धि के लिए मारुती, तैजसी और जलीय-इन तीनो धारणाओ को मान्य करते है : तत्रादौ पिण्ड-सिद्धयर्थ, निर्मलीकरणाय च। मारुती तैजसीमाप्या, विदध्याद् धारणा क्रमात्॥ -तत्त्वानुशासन-१८३ मनोनुशासनम् / १०७
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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