SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वरूप की जिज्ञासा होने पर भी ध्यान की सफलता पाना निश्चित नही है। उसके अनेक विघ्न है। उनका निरसन किए बिना ध्याता आगे नही वढ सकता। स्थूल दृष्टि के अनुसार ध्यान के विघ्नो का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है। १ रोग २ शारीरिक सहनन (अस्थि-रचना) की दुर्वलता ३ उद्दण्ड मनोभाव ४ झगडालू मनोवृत्ति ५. खाद्य-सयम का अभाव ६. प्रमाद (विस्मृति) ७ आलस्य इन विघ्नो मे कुछ शारीरिक है और कुछ मानसिक। शारीरिक विघ्नो को आसन, प्राणायाम आदि के अभ्यास द्वारा निरस्त किया जा सकता है और मानसिक विघ्नो को दूर करने के लिए सतत जागरूक रहना जरूरी है। अपने स्वरूप के प्रति जागरूक रहना ध्यान का प्रथम या अतिम उपाय है अथवा वही ध्यान है। हम ध्यान की उपयोगिता को तभी अस्वीकार कर देते यदि उसके द्वारा चित्त की स्थिरता प्राप्त नही होती। एक सीमा तक चित्त की चचलता सह्य होती है, किन्तु उसकी चचलता पर कोई नियत्रण नहीं होता तब वह आगे से आगे वढती जाती है। एक दिन उसका बढना असह्य हो उठता है। यही मानसिक अशान्ति है। इसके निवारण का उपाय या मानसिक शान्ति का उपाय है-चंचलता की मात्रा को फिर से कम करना। यह कार्य ध्यान के द्वारा ही किया जा सकता है। ५. ईषदवनतकायो निमीलितनयनो गुप्तसर्वेन्द्रियग्रामः सुप्रणिहितगात्रः प्रलम्वितभुजदण्डः सुश्लिष्टचरणः पूर्वोत्तराभिमुखो ध्यायेत्।। ६. पद्मासनादिषु निषण्णो वा।। ५ ध्यान करने वाला व्यक्ति शरीर को आगे की ओर थोडा-सा झुकाकर, नेत्रो को मूदकर, इन्द्रियो को विषयो से निवृत्त कर, शरीर को सुस्थिर व शिथिल बनाकर, वाहो को घुटनो की ओर प्रलम्वित कर, पैरो की एडियो को परस्पर मिलाकर पूर्व या उत्तर ६४ / मनोनुशासनम् सका बढना असह्य अशान्ति है। इसके शान्ति का
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy