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________________ शरीर-व्युत्सर्ग ममकार का मूल बीज शरीर है। साधना की पहली कक्षा हैशारीरिक ममत्व का विसर्जन। शारीरिक ममत्व को विसर्जित किए बिना शरीर के भीतर अवस्थित चेतन सत्ता की अनुभूति नही हो सकती। दीपशिखा पर जैसे ढक्कन पडा है, उसी प्रकार शरीर और उसके सहचारी मन और प्राण के द्वारा चैतन्य की शिखा ढकी पडी है। शरीर की चचलता और ममत्व का जैसे-जैसे विसर्जन होता है, वैसे-वैसे हमारी उन्मुखता चैतन्य की ओर होती है। ध्यान का लक्ष्य है चैतन्य की उपस्थिति का सतत अनुभव करना। उसके लिए शरीर की चचलता और ममत्व, ये दोनो त्याज्य है। गण-व्युत्सर्ग साधक अकेले मे रहे या सघ मे ? इस प्रश्न का भगवान् महावीर ने अनैकातिक उत्तर दिया है। भगवान् ने कहा-साधना गाव मे भी हो सकती है और अरण्य मे भी हो सकती है और वह गाव मे भी नही हो सकती और अरण्य मे भी नही हो सकती। जिस व्यक्ति मे आत्माभिमुखता की तीव्रता नही है, उसके लिए अरण्य भी गाव जैसा है और जिस व्यक्ति मे आत्माभिमुखता की तीव्रता है, उसके लिए गाव भी अरण्य जैसा है। इसी प्रकार आत्माभिमुख व्यक्ति सघ मे रहकर भी अकेला रह सकता है। वह अकेले मे रहकर भी वैचारिक अकेलेपन का अनुभव नही कर पाता। तत्त्व-विचार की भूमिका मे उक्त चितन की यथार्थता को अस्वीकार नही किया जा सकता। किन्तु मनुष्य की कठिनाई है कि वह पहले ही चरण मे तत्त्व-चिन्तन और व्यवहार की भूमिका मे सामजस्य स्थापित नही कर पाता। सघीय जीवन मे व्यावहारिक कठिनाइया अनायास ही उभर आती है। उसमे विभिन्न रुचिया, संस्कार, चिन्तन और मानदड होते है। वे सामान्य साधना मे विक्षेप डालते भी है या नहीं भी डालते। किन्तु उसकी विशिष्ट प्रक्रियाओ व प्रयोगो मे वे साधक नही होते। इसीलिए साधना की विशिष्ट प्रक्रियाओ का अभ्यास करने वाला व्यक्ति सघीय जीवन से मुक्त होकर चलता है। दूसरो के लिए कुछ करना बहुत बड़ी बात है और केवल अपने लिए मनोनुशासनम् / ८६
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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