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________________ २६ ममत्वहानये भेदज्ञानाय च भक्तपान-व्युत्सर्गः॥ २७ सहजानन्दलब्धये कषाय-व्युत्सर्गः॥ २२. शरीर, गण, उपधि, भक्तपान और कपाय का विसर्जन करने को व्युत्सर्ग कहा जाता है। २३ ध्यान के लिए शरीर का व्युत्सर्ग किया जाता है। उसे त्यक्त, शिथिल, निश्चेष्ट और निष्क्रिय कर देने पर उसका भान नही होता और तनाव समाप्त हो जाता है। २४ विशिष्ट साधना के लिए गण का व्युत्सर्ग किया जाता है। जो विशिष्ट ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्पन्न हो, विशिष्ट शरीर-बल सम्पन्न हो तथा गुरु द्वारा अनुज्ञात हो वे ही व्यक्ति अकेले रहकर विशिष्ट साधना करने के अधिकारी है। २५ लाघव (हल्कापन) के लिए उपधि-वस्त्र आदि उपकरणो का त्याग किया जाता है। बाह्य-उपधि जितने अधिक व्यक्त होते है, उतनी ही लघुता वढती है और वे जितने अधिक होते है, उतना ही भार वढता है। २६. ममत्व की हानि तथा भेदज्ञान के लिए आहार-पानी का त्याग किया जाता है। शरीर जो है, वह मै नही हू, और मै जो हू, वह शरीर नहीं है-ऐसा भेदज्ञान होने से ममत्व की हानि होती है और ममत्वहीन होने से आत्मशक्ति का विकास होता है। भक्त-पान का त्याग उसके विकास मे बहुत सहायक है। २७. सहज आनन्द या वीतराग भाव की प्राप्ति के लिए कषाय का त्याग किया जाता है। कषाय के द्वारा आत्मा का सहज आनन्द विकृत हो जाता है। उसकी प्राप्ति कपाय दूर होने पर ही होती है। व्युत्सर्ग विसर्जन साधना का रहस्य है। जो विसर्जन के महत्त्व को नही जानता, वह साधना के मर्म को नहीं जानता। अहकार और ममकार-ये दोनो साधना के वाधक तत्त्व है। साधक की पहली कसौटी है-अहकार और ममकार से मुक्त होना। ८८ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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