________________
(५)
सरणागयवचल.॥१॥ पच्चुवया र निरीह-नाह निपन्न पयग, तुह जिरा पास परोव-यार करणिक परायण; सत्तु मित्त समचित्त-वि नि नयनिंदय सममण, मा अवही रिय ऽजुग्ग-विमई पास निरंजण ॥श्शा हन बहुविहउह तत्त-गत्तु तु ह उह नालण परु, हन सुयाह करुणिक-गणु तुहु निरु करुणापरु; हन जिण पास असामि-सालु तुहु तिहुअरा सामिय, जं अवही रहि मई-मखत इय पास न सो हिय ॥ २३ ॥ जुग्गाऽजुग्ग विना ग-नाह नहु जोयदि तुह सम, तु,