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(1) विण किण वि-पेय पाइण वेलविय न, तुवि जाणन जिण पास-तुह्मि हनं अंगीकरिन; श्य मह इस्थिन जं न-होइ सा तुह नहावणु, रक् खंतह नियः कित्ति-गेय जुऊर अव हीरणु ।। श्य॥ए हमहारिय जत्त देव इहु न्हवण महुसन, जं अण लिय गुणगहण-तुम मुणि जण अ शिसिन, एम पसोय सुपास-नाह थंना पुरदिव्य, श्य मुणिवरू सि रिअन्नय-देन विनव अणिदिय,
॥ इति श्री जयतिहुश्रण स्तोत्रं संपूर्ण.। मिति नई नवतु सकलस्य जगतः शान्तिः