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________________ ७८ ] ~~~~~~~~~~~~~mmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmm चउसघ को वात्सल्य कीजै, धरम की परभावना । गुरण प्रा०सौ गुन पाठ लहि के, इहां फेर न भावना ॥२॥ ॐ ह्री अष्टागसहित-पचविंशतिदोषरहिताय सम्यग्दर्शनाय पूर्णाध्य । ज्ञान पूजा पञ्चभेद जाके प्रकट, ज्ञेय प्रकाशन भान । मोह-तपन-हर-चन्द्रमा, सोई सम्यकज्ञान ।। ॐ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञान । अत्र अवतर अवतर, सवौषट् । ॐ ह्री अष्टविधसम्यग्ज्ञान । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ह्री अष्टविघसन्यग्ज्ञान । अत्र मम सन्निहितो, भव भव वषट् । सोरठा-नीर सुगन्ध प्रपार, तृषा हरै मल छय करें। सम्यज्ञान विचार, पाठ भेव पूजौं सदा ॥१॥ ॐ ही प्रष्टविषसम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामोति स्वाहा । जल केशर घनसार, ताप हरे शीतल करे । सस्यज्ञान विचार. पाठ भेद पूर्नी सदा ॥२॥ ॐ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । प्रछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै । सम्यक्ज्ञान विचार, आठ भेद पूर्जी सदा ॥३॥ ॐ ह्री अष्टविषसम्यग्ज्ञानाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । पहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे । सम्यक्ज्ञान विचार, आठ भेद पूर्जी सदा ॥४॥ ॐ ही अष्टविघसम्यग्ज्ञानाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करें।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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