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________________ [ फल शोभा अधिकार, लोंग छुहारे जायफल | जनम रोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजो ॥८॥ ॐ ह्री सम्यग्रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फल नि० । ७५ आठ दरब निरधार, उत्तमसो उत्तम लियो । जनम रोग निरवार, सम्यक्रत्नत्रय भजो ॥६॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये श्रध्यं निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक दर्शनज्ञान, व्रत शिवमग तीमो मयी । पार उतारन थान, 'द्यानत' पूजो व्रत सहित ॥१०॥ ॐ ह्री सम्यग्रत्नत्रयाय पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा । समुच्चय जयमाला । दोहा - सम्यक् दर्शन ज्ञान व्रत, इन बिन सुकति न होय पन्ध पंगु अरु श्रालसी, जुदे जलै दवलोय ॥ १ ॥ चौपई | जाप ध्यान सुथिर बन श्रावे, ताके करमबन्ध कट जाये । तास शिवतिय प्रीति बढावे, जो सम्यक् रत्नत्रय घ्यावे |२| ताक चहुँगति के दुख नाहीं, सो न परे भवसागर माहीं । जनम-जरा-मृत्यु दोष मिटावे, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै ॥ ३ ॥ सोई दशलच्छन को साधे, सो सोलह कारण प्राराधे । सो परमातम - पद उपजावै, जो सम्यक् रत्नत्रय घ्यावे ||४|| सोई शक्र - चक्रि-पद लेई, तीन लक के सुख विलसेई । सो रागादिक भाव बहावै, जो सम्यक् रत्नत्रय घ्यावे ॥ ५ ॥ सोई लोकालोक बिहारै, परमानन्द दशा विस्तारै । श्राप तिरै श्रोरन तिरवावै, जो सम्यक् रत्नत्रय घ्यावे ||६||
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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