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________________ ७४ ] ॐ ह्री सम्यगरत्नत्रय । अत्र तिष्ठतिष्ठा ॐ ह्री सम्यगलत्रय । अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । सोरता-क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहनो। सनम रोग निरवार, सम्यक्रत्नत्रय भवों ॥१॥ ह्री सम्यग्ररत्नत्रयाय जन्मरोगविनाशनार जलम् निर्वपामीति स्वाहा चन्दनकेशर गारि, परिमल महा सुगन्धमय । जनम रोग निरवार, सम्यकलत्रय भजों ॥२॥ ॐ ह्री मम्यारलत्रयाय भवतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वः । तन्दुल अमल चितार, वासमति मुखदाय के । जनम रोग निरवार, सन्यकरत्नमय भजो ॥३॥ ॐ ह्री सम्यग्न्लत्रयाय अजयपदप्राप्तये अबनान् मि० । महक फूल अपार, अलि गुंजै ज्यो युति करें। जनम रोग निरवार, सम्यकलत्रय भजों ॥४॥ ॐ ह्री सम्यरित्नत्रयाय कामवादिष्वशनार पुप्पं निर्व० । लाडू बहु विस्तार, चोकन मिष्ट सुगन्धयुत । जनम रोग निरवार, सम्यक्रत्नत्रय भजों ॥५॥ ॐ ही सम्यरत्नत्रयाय सुवारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व० । दीप रतनमय सार, जोत प्रकाश जगत मे । जनम रोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजो ॥६॥ ॐ ह्री सम्यग्ग्लत्रयाय मोहान्वकार विनाशनाय दीपं निव० । धूप सुवास विथार, चन्दन अगर कपूर की। जनम रोग निरवार, सम्यत्रतत्रय भजों ॥७॥ ॐ ह्री मम्यगरलत्रयाय अष्टकर्मविनागनाय धूपं निर्व० ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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