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________________ ४८ ] ही जमोति मिद्रारमेटिन यायनगवनर मबीपद ग्राहानन । अर निष्ट निष्टकट म्यान । म म ननिहितो मन मव पट् मनिषितरण। निरस्त-फर्म-सम्बन्ध सूक्ष्म नित्य निगमयम् । वन्देऽह परमात्मानममूत्तिमनुपद्रवम् ।। यत्र म्यापनम् ।। अथाष्टकम् मोग्ठा-मोहि तृपा दुम देहि, तो तुमने जीती प्रनू । जलसो पूर्जा नेह, मेरो रोग मिटाइयो ॥१॥ ॐ ह्री णमो गिलाण मि-प मेष्टिन्यो सम्मान्य ज्ञान-दर्शनवीर्यसुमत्त-अवगाहन-अगलघु-प्रवाबाधाय जन्मजगमृत्युविनागनार जल निर्वपामीति स्वाहा। हम भव प्रातप माहिं तुम न्यारे संसार ते । कीज सोनल छाहि, चन्दन मो पूजा करो ।। चन्दन ॥२॥ हम औगुरा समुदाय, तुम अक्षय गुण के भरे । पूजो अक्षत लाय, दोष नाश गुरण कीजिये । अक्षतः॥३॥ फाम 'प्रगनि है नोहि निश्चय शील स्वभाव तुम । फूल चढाऊ तोहि, सेवक फी वाघा हरो ॥ पुष्प ॥४॥ मोहि क्षुधा दुख भूरि, ज्ञान खडगसो तुम हती। मेरी बाधा चूरि, नेवज सो पूजा करो ॥ नैवेद्य ।।५।। मोहतिमिर हम पास, तुम पर चेतन ज्योति है । पूज् दीप प्रकाश मेरो तम निर्वारिये ।।दीप ॥६॥ रुल्यो करम बन जाल, मुक्ति माहि तुम सुख करौ ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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