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________________ निरस्त-कर्म-सम्बन्धं, सूक्ष्म नित्यं निरामयम् । बन्देऽहं परमात्मानममूर्त्तमनुपद्रवम् ॥१॥ [पुष्पाजलिम्] जिन त्यागियो को विना द्रव्य चढाये भावो के द्रव्यो से ही पूजा करना हो, वे आगे के भावाष्टक को वोलकर करें। अष्टद्रव्य से पूजा करने वालो को भाव पूजा का अष्टक कदापि नही बोलना चाहिये । सिद्धौ निवासमनुग परमात्म्य गम्यं, हीनादि-भाव-रहित भव-वीत-काय । रेवापगा-वरसरो-यमुनोद्भवानां नीरैयजे कलशगैर्वर-सिद्धचक्रम् ।।१।। ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल० आनन्दकन्दजनक-धन-कर्म-मुक्त, सम्यक्त्व-शर्म गरिमं जननाति-चीत । सौरम्य-वासित-भुव हरि-चन्दनानां, गन्धर्यजे परिमलैर्वर-सिद्धचक्रम् ॥२॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने ससारतापविनाशनाय चंदन सर्वावगाहन-गुण सुसमाधि-निष्ठ,सिद्ध स्वरूप-निपुरणं कमलं विशालं । सौगन्ध्य-शालि-वनशालि-वराक्षतानां, पुंजर्यजे शशि-निभर्वर-सिद्धचकम् ।।३।। ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने प्रक्षयपदप्राप्तये अक्षत । नित्य स्वदेह-परिमाणमनादि-संज्ञं, द्रव्यानपेक्षममृत मरणाद्यतीतम् । मन्दार-कुन्द-कमलादि-वनस्पतीनां, पुष्पैर्यजे शुभतमैर्वर-सिद्ध-चक्रम् ॥४॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामवाण विध्वसनाय पुष्प० । ऊर्ध्व-स्वभाव-गमन सुमनोव्यपेतं, ब्रह्मादि-बीज-सहितं गग
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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