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________________ भूख प्यास चिन्ता शरीर, दुख जे बिललाने, शरण नाहि जिन कोय, भूप के बन्दीखाने । तुम सुमरत स्वयमेवही, बन्धन सम खुल जाहिं । छिन मे ते सम्पति लहैं, चिन्ता भय विनशाहिं ॥४६॥ महामत्त गजराज, और मृगराज दवानल, फरणपति रण-परचंड, नीरनिधि रोग महावल । बन्धन ये भए पाठ, डरपकर मानों नाश । तुम सुमरत छिनमाहि, अभय थानक परकाश ।। इस अपार ससार मे शरण नाहिं प्रभु कोय । याते तुम पद भक्त को, भक्ति सहाई होय ॥४७॥ यह गुणमाल विशाल, नाय तुम गुणन संवारी, विविध वर्गमय पुहुप, गून्य में भक्ति विद्यारी । जे नर पहिरै फठ भावना मन मै भाव, मानतुङ्ग से मिजाधीन, शिव लक्ष्मी पावं । भाषा भक्तामर कियो, 'हेमराज' हितहेत । जे नर पढे सुमाव सौं, ते पाव शिव-खेत ॥४८॥ इति ।। संकट हरण स्तुति हो दोन बन्धु श्रीपति, करणानिधानजी । अब मेरी विथा क्यो न हरो, वार क्या लगी । मालिक हो तो जहान के जिनराज झापही । ऐषो हुनर हमारा तुमसे छिपा नहीं । बेजान में गुनाह जो मुझसे बना सही । कंकरी के चोर को कटार मारिये नहीं हो दीन.।१।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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