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________________ १८ ] 1 1 मै भूल स्वय के वैभव को, पर ममता मे ग्रटकाया हूँ अव सम्यक् निर्मल नीर लिये, मिथ्या-मल घोने ग्राया हूँ || ॐ ह्री श्रीदेव-शाम्न गुरुभ्य मिथ्यात्वमन्न विनाशनाय जल नि० । जड़ चेतन की सब पररगति प्रभु ! अपने अपने मे होती है । अनुकूल' कहे प्रतिकूल' कहे, यह झूठी मन की वृत्ती है ॥ प्रतिकूल सयोगो मे क्रोधित होकर लमार वढाया है । सतप्त हृदय प्रभु 1 चदन नम, शीतलता पाने आया है || ॐ ह्री श्रीदेव-शास्त्र गुरुभ्य कोवकपायमल विनाशनाय चन्दन नि० 1 उज्ज्वल हूँ कुन्द' घदल हूँ प्रभु। परसे न लगा हूँ किचित् भी । फिर भी अनुकूल लगे उन पर करता अभिमान निरतर ही ।। जड़पर झुकझुक जाता चेतन, की मादंव की खडित काया । निज शाश्वत अक्षत निधि पाने, अव दास चररणरज मे प्राया ।। ॐ ह्री श्रादेव शास्त्र - गुरुभ्य मानकपायमल- विनाशनाय प्रक्षत नि० । यह पुष्प सुकोमल कितना है, त मे माया' कुछ शेष नहीं । निज अन्तर का प्रभु । भेद कहूँ, उसमे ऋजुता का लेश नहीं ॥। परचतन कुछ फिर सभापरण 'कुछ, किरिया कुछको कुछ होती है । स्थिरता निज मे प्रभु पाऊँ जो, ग्रन्तर का कालुष घोती है " ॐ ह्री श्रीदेव-शास्त्र-गुरुम्य मायाकपायमल- विनाशनाय पुप्पम् नि० । अब तक अगणित जड द्रव्यों से, प्रभु भूख न मेरी शात हुई || तृष्णा को खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही । ५ 1 १ अच्छा । २ वुरा । ३ एक श्वेत पुष्प | ५ अविनाशी । ६ कुटिलाई ८ सरलता । ८ वचन । ४ निरभिमानता । खाली 1
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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