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________________ ( ३८ १ चिन्मूरति पाप प्रनन्तगुनी, नित शुद्धदशा शिवाना है। भक्त भी हो, सुखदेत तिन्हें जु सुहाना है । यह शक्ति प्रनित्य तुम्हारी का, या पावे पार पाना है श्री दुख सउन श्री सुखमण्डनका, तुमरा प्रण परम प्रमाना है । वरदान दया यश घोरत का, तिहुँ लोक घुजा फहराना है । फमलाघरजी | कमलाकरजी, करिये कमला कमलाना है। अव मेरोविया प्रलोकि रमापति, रचन बार लगाना है । श्री. हो दोनानाथ मनाय हित उन दीन प्रनाथ पुकारी है उदयागत कर्म विपाक हलाहल, नोह पिया विस्तारी है । व्यो छाप और नदि जीवन की, ततकाल दिया निरवारी है त्यो 'वृन्दावन' यह करें प्रभु प्राज हमरी बारी है। श्री 1 " भक्तामर स्तोत्र भक्तामर प्रणत- मौलिमणिप्रभारखामुद्योतक दलित- पारन्तमो-विज्ञान | तम्यप्रणस्य जिन पारयुग युगात- दालम्बनं भव-वले पततां जनालाई ॥ रः संस्तुतः सकलवाड, मय-तत्व - दोघा- भूत-बुद्धि-पटुभि. तुर-लोक-नापैः । स्तोत्रजंग स्त्रितय-चित्त-हरेदारे, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ||२||
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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