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________________ ते मावे शिव पट पावे विलसे सुक्ख अनन्तो। स' वह गति होय हमारी जैन धरम जयवन्तो । १० । ॥ इति ममाधिमरण समाप्त ।। बारह भावना (भूधरदास प्रत) राजा राणा छत्रपति, हपियन के प्रसवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी चार ।। दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार । मरतो बिरिया जीद फो, कोई न राखनहार ।। दाम मिना निषन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहीं न सल संसार मे, सब जग देखो बान । ३ । प्राप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय । यू कबहू इस जीवका, साथी सगा न कोय । ४ । जहां देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय । घर सम्पत्ति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ।५। दिपे चाम चादर मढी, हाड पीजरा देह । भीतर या सम जगत मे, और नहीं घिनगेह ।६। सोरठा-मोह नींद के जोर, जगवासी घूमे सदा । कर्मचोर चहुँ भोर, सरबस लूटे सुध नहीं । ७ । सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमे । सब कुछ बने उपाय, कर्म चोर पावत रुके ।। घोहा-ज्ञान दीप तप तेल भर, घर सोधे भ्रम छोर । याविधि बिन निकसे नहीं, बैठे पूर्व चोर । । ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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