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________________ १४ ] .. ... ... ............ .. .....rrrrrrr ~~~~~~~~~~..... दोहा-चन्दन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन । जासो पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ॐ ह्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो ससार-ताप-विनागनाय चन्दन निर्व० । यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई । अति दृढ परमपावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ।। उज्ज्वल प्रखडित सालि तदुल, पुञ्ज घरि त्रयगुण जचू । अरिहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्गन्थ नित पूजा रचू॥ दोहा-तदुल सालि सुगध अति, परम अखण्डित बीन । जासो पूर्जी परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥३॥ ॐ ह्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षत निर्व० स्वाहा ॥३॥ जे विनयवत सुभव्य उर, अबुज प्रकाशन भान हैं। जे एक मुख चारित्र भाषित त्रिजग माहिं प्रधान है ।। लहि कुन्द कमलादिक पहुप, भव भव कुवेदन सो बचू । अरिहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निम्रन्थ नित पूजा रचू। दोहा-विविध भाति परिमलसुमन, भ्रमर जासु प्राधीन । ___जासौं पूर्जी परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥४॥ ॐ ह्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्पं निर्व० स्वाहा । प्रति सबल मदकंदर्प जाको, क्षुधा उरग अमान है। दुस्सह भयानक तासु नाशनको, सु गरुड़ समान है ।। उत्तम छहो रस युक्त नित, नैवेद्यकरि घृत मे पचूं। अरिहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचू ॥
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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