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________________ छक्वडागम ८३ ओघेण ओदेसेण य' सूत्रसे होता है । पहलेके मव अनुयोगदागेम ओघकथन पहले गुणस्थानमे आरम्भ होता है किन्तु यहाँ वह बात नहीं है । यहां सम्याके अल्पत्वके और बहुत्वके आधारपर कथन है। जिन गुणस्थानोमे जीवोकी मम्या सबसे कम है उगका निर्देश प्रथम है और आगे जिन-जिन गुणस्थानोमे जीवोकी गरया क्रमग बढती जाती है उनका कथन है । यथा---'ओघमे' अपूर्वकरण आदि तीन गुणरथानोमें उपशामक जीव प्रवेगकी अपेक्षा परस्पर तुल्य है किन्तु अन्य मब गुणम्यानोमे अल्प है ॥ २॥ उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थगुणस्थानवाले जीव भी पूर्वोक्त प्रमाण ही है ॥ ३ ॥ उममे भगक असम्यात गुण है ।।।।। इस तरह आठवे गुणस्थानसे प्रारम्भ करके भागी और ले गये है क्योकि अन्य मव गुणस्थानोमे उपशमश्रेणीके इन गुणस्थानोमे जीवोवी सख्या सबसे कम होती है । गुणस्थानोकी अपेक्षा अत्पबहुत्वका कथन करके फिर मार्गणाओमे अल्पवहुत्वका कथन है। यथा-'आदेशगे' गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोमे सामादनसम्यग्दृष्टी जीव सबमे कम है ।। २७ ।। मम्यक् मिथ्यादृष्टि जीव मल्यातगुणे है ।। २८ ॥ इत्यादि । इममें ३८२ सूत्र है । इस अल्पवहुत्वानुगमके माथ जीवट्ठाण नामक प्रथम खडके आठो अनुयोगहार ममाप्त हो जाते है । और इस तरहसे पहला खड समाप्त हो जाता है। किन्तु इनके पश्चात् भी जीवस्थानकी चूलिकाके नामगे एक अधिकार और भी है। ___ जीवस्थान चूलिका-इसकी धवलाटीकाके प्रारम्भमें ही यह शका की गई है कि जीवस्थानके आठो अनुयोगद्वारोके समाप्त हो जानेपर चूलिका किसलिये आई है ? इसका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामीने लिखा है-पूर्वोक्त आठो अनुयोगहारोके विपम स्थलोके विवरणके लिये आई है । पुन यह गका की गई है कि सत्प्ररूपणाके प्रारम्भमे कहा गया है कि 'चौदह गुणस्थानोके कथनके लिये ये आठ ही अनुयोगद्वार जानने योग्य है, यदि चूलिका उन्हीसे प्रतिबद्ध अर्थका कथन करती है तो 'आठ ही' कहना व्यर्थ हो जाता है क्योकि चूलिका नामक नौवा अधिकार भी हो जाता है । यदि चूलिका चौदह गुणस्थानोसे अप्रतिबद्ध अर्थका कथन करती है तो उसे 'जीवट्ठाण' सज्ञा नहीं दी जा सकती ? , 'ओघेण तिसु अद्वामु उवममा पवेमणेग तुल्ला योवा || उवमनकामायनीदराग उदुमत्या नत्तिया चेव ॥ ३ ॥ मना मज्जगुणा ॥ ४ ॥ पटम०, पु०५, पृ० ०४३ आदि । • 'आदेमेण गढियाणुवाटेण गिरयगटी रइण्मु मन्बत्यो वा मामणमम्मादिटठी ।। २७ ।। -पट्स०, पु० ५, ५० २६१ । । 'सम्मत्तेमु अटठसु अणियोगद्दारेसु चूलिया किमठ्ठमागढा ? पुव्वुत्ताणमण्णमणिओग हाराण विममपएमविवरणहमागदा।' पटख०, पु० ६, पृ० ० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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