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________________ ८४ जैन साहित्यका इतिहास इसका समाधान करते हुए भवलकारने लिगा है कि चूलिकामे ऐसे अर्थका कथन है जो आठो अनुयोगद्वारोमं नही कहे गये है किन्तु उनसे सूचित होते है । अत चूलिका उक्त आटो अनुयोगारोगे हो अन्तर्भुत है, उनसे बाहर नही है । इस चूलिका अन्तर्गत नो अधिकार है। प्रकृतिगमुत्कीर्तन, स्यानममुत्कीर्तन, प्रथम महादण्डक, द्वितीयमहादण्डक, तृतीय महादण्या, उत्कृष्टस्थिति, जघन्य - स्थिति, सम्यक्त्रोत्पत्ति और गति - आगति चूलिका | चूलिके उन नो अधिकारीका अन्तर्भाव उक्त आठ अनियोगहारोगे करने हा वीरगेनस्वामीने लिया है-क्षेत्र काल और अन्तर अनियोगहागेग गति- आगति चूलिया सूचित की गई है, वह गति - आगति चूलिका भी प्रकृतिगगकीर्तन जो रवानगीर्तनको सूचित करती है क्योकि कर्मवन्धके बिना गतियोंमे गमनागमन नही बनता । प्रकृतिगगुल्लीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन के द्वारा कर्मो की जनन्यस्थिति और उत्कृष्टस्थिति सूचित की गई है, क्योकि मकपाय जीवके स्थितिबन्ध विना प्रकृतिबन्ध नहीं होता । कालानुयोगद्वार में जो मादिगान्त मिध्यादृष्टिका उत्कृष्ट बाल कुछ कम अर्धगुद्गल परावर्तन बतलाया है उसमे प्रथमसम्यक्त्वका ग्रहण किया गया है क्योकि उसके विना मिध्यादृष्टिका उक्त उत्कृष्टकाल नहीं बनता । प्रथम गम्यत्वमे तीन महादण्डक सूचित होते है । इस तरह वीरगनम्नाभीने चूलिका के नो अधिकारीको पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारोमं ही अन्तर्भूत बतलानेका नत्प्रयत्न किया है। उनका आशय यह है कि गुणस्थान और मार्गणाओ द्वारा जीवके अस्तित्व, मरुया, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका कथन करने के पश्चात् यह कथन करना शेष रह जाता है कि जीव मरकर किम गतिमे किंग गतिमें जाता है । भत उस कथन के लिये गति-आगति चूलिका अधिकार हूं और शेप अधिकार प्राय उसीके सम्बन्धसे अवतरित हुए है । इनमेमे प्रकृतिसमुत्कीर्तन आदि कुछ अधिकार ऐसे भी है जो दूसरे खण्ड 'बन्धक' के लिये उपयोगी है । अत इस चूलिकाके द्वारा सूत्रकार भूतवलिने जीवस्थानके साथ आगे के खडोको सम्बद्ध करनेका प्रयत्न किया हो, यह भी हमे सम्भव प्रतीत होता है । अस्तु, चूलिका प्रथमसूत्रके द्वारा सूत्रकारने नीचे लिखे प्रश्न किये है -१ ( सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव ) कितनी और किन प्रकृतियोको १ पट्ख०, पु० ६, पृ० ३ । २ 'कदिकाओ पयडीओ वधदि, केवटिकालट्ठिदिदि कम्मेहि सम्मत्त लभेदि वाण लब्भ दिवा, केवचिरेण वा कालेण वा कढि भाए वा करेदि मिच्छत, उवसामणा वा सवणा वा केसु व खेतेसु कस्स व मूले केवडिय वा दमणमोहणीय कम्म नवेंतस्स चारित वा सपुण्णपडिवज्जतस्स ॥ १ ॥ - पट्ख०, पु० ६, पृ० १ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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