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________________ छक्खडागम ८१ है। यही उक्त अपेक्षाओसे सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवालोका स्पर्शनक्षेत्र है। इस प्रकार इस स्पर्शनानुगममें चौदह गुणस्थानो और चौदह मार्गणाओमें जीवोके स्पर्शनविषयक क्षेत्रका कथन है। इसमें १८५ सूत्र है। ५ कालानुगम-इसमें ओघ और आदेशकी अपेक्षा कालका कथन है अर्थात् यह बतलाया है कि नाना जीव और एक जीव किस गुणस्थान अथवा मार्गणास्थानमें कम-से-कम और अधिक-से-अधिक कितने काल तक रहते है। जैसे, सूत्र २ में यह प्रश्न किया गया है कि ओघसे मिथ्यादृष्टी जीव कित काल तक होते है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि नाना जीवोकी अपेक्षा सर्वकाल होते है ( क्योकि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वदा पाये जाते है, उनका कभी अभाव नही होता। किन्तु एक जीवकी अपेक्षा अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादिसान्त काल है। अभव्यजीव कभी मिथ्यात्वको नही छोडता, अत उसकी अपेक्षा अनादि अनन्तकाल है । जो भन्यजीव अनादिकालसे मिथ्यादृष्टि है किन्तु मिथ्यात्वको छोडकर सम्यग्दृष्टि हो जाते उनके मिथ्यात्वका काल अनादि सान्त है। और जो भव्यजीव सम्यक्त्वको छोडकर मिथ्यादृष्टि हो जाते है उनका काल सादि और सान्त है। ऐसे जीवोके मिथ्यात्वमें रहनेका काल कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त होता है, अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यत्वमें रहकर वे पुन उससे निकलकर सम्यग्दृष्टी आदि हो जाते है । और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्तन है । चौदहमेंसे छै गुणस्थानोमें जीवोका कभी अभाव नही होता। वे छै गुणस्थान है-पहला, चौथा, पाँचवा, छठा, सातवां और तेरहवाँ । इसी प्रकार सब गुणस्थानोमें और सब मार्गणास्थानोमें कालका कथन किया गया है । इस कालानुगमके सूत्रोकी सख्या ३४२ है । ६ अन्तर-किसी विवक्षित गुणस्थानवी जीवके उस गुणस्थानसे दूसरे गुणस्थानमें चले जानेसे पुन उसी गुणस्थानमें आनेके कालको अन्तर कहते है । इस अन्तरानुगममें ओघ और आदेशकी अपेक्षा इसी अन्तरका कथन किया गया है। जैसे-ओघकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टी जीवोका अन्तर काल कितना है ? इस प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है कि नाना जीवोकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, मिथ्यादृष्टि जीव मदा पाये जाते है। किन्तु एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक सौ वत्तीस सागरोपम काल है। . घवलाटीकामें इस अन्तरकालकी सगति विस्तारसे सिद्ध की है । चौदह गुणस्थानोमेंसे जिन छै गुणस्थानोमें सर्वदा जीव पाये जाते है, नाना जीवोकी अपेक्षा १ पटख०, पु० ५ में अन्तर, भाव और अल्पवद्दुत्व अनुयोगद्वार मुद्रित हैं।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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