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________________ छक्खंडागम • ७५ १० लेश्याके' छै भेद है-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या चौथे गुणस्थान तक होती है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या सातवे गुणस्थान तक और शुक्ललेश्या तेरहवे गुणस्थान तक होती है। उसके बाद लेश्या नही होती, क्योकि योग और कपायके मेलका नाम लेश्या है और तेरहवें गुणस्थानके वाद योग और कपाय दोनो नही रहते । ११ भव्यत्वमार्गणाके दो भेद है-भव्य और अभव्य । जो जीव आगे मुक्तिलाभ करेंगे उन्हें भव्य कहते है । और जिन जीवोमे मुक्ति प्राप्त कर सकनेकी योग्यता नही है उन्हें अभव्य कहते है । अभव्य जीवोके पहला ही गुणस्थान होता है और भव्योके चौदह गुणस्थान होते है । १२ सम्यक्त्वमार्गणाके3 छ भेद है-क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृप्टि, उपशमसम्यग्दृप्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यगिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि । क्षायिकसम्यग्दृष्टि चौथेसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होते है । वेदकसम्य-ग्दृष्टि चौथेसे लेकर सातवें गुणस्थान तक होते है। उपशमसम्यग्दृष्टि चौथेसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होते है । सासादनसम्यग्दृष्टि एक सासादन गुणस्थानमे ही होते है । सभ्यक्मिथ्यादृष्टि एक सम्यक् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे होते है और मिथ्यादृष्टि जीव पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे होते है । १३ सज्ञीमार्गणाके दो भेद है-सज्ञी और असज्ञी । सज्ञीके पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर बारहवें क्षीणकपाय गुणस्थान तक होते है । असज्ञी पहले ही गुणस्थानमें होते है। १४ आहारमार्गणाके दो भेद है-आहारक और अनाहारक । आहारक तेरहवे गुणस्थान तक होते है और अनाहारक विग्रहगति अवस्थामे पहले-दूसरे और चौथे गुणस्थानमें, समुद्घात करने वाले सयोगकेवली, अयोगकेवली और सिद्ध अवस्थामें होते है। __अन्तिम आहारमार्गणाके कथनकी समाप्तिके साथ ही सत्प्ररूपणा समाप्त हो जाती है । पुष्पदन्ताचार्यकी रचनाका अन्त भी उसीके साथ हो जाता है । सामान्य सत्प्ररूपणामें चौदह गुणस्थानोकी अपेक्षा जीवके अस्तित्वका प्रतिपादन किया गया है और विशेषमें चौदह मार्गणाओकी अपेक्षा गुणस्थानोमें जीवो१. पट्ख० पु. १, पृ० ३८६-३९२ । २ वही, पृ० ३९२-३९४ । ३ वही, पृ० ३९५-४०८ । ४ वही, पु०१, पृ० ४०८-४०९ । ५ वही, पृ० ४०९-४१० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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