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________________ ७४ - जनसाहित्यका इतिहास कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और पराकायिक । गुरूके पांच कायिक जीवोंके केवल एक स्पर्मन इन्द्रिय होती है । अत. उनके पहला गुगस्थान ही होता है। शेप दो इन्द्रियम लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सब जीन रा कहे जाते है । अत नसोके चौदह गुणग्यान होते है क्योकि पञ्चेन्द्रिय भी बग है। ४ योगो तीन भेद है-कागयोग, वचनयोग और मनोयोग । इन तीनो योगोके अनेक भेद है । ये तीनो याग तेरहवे गुणस्थान तक होते है । ५ वेद भो तीन है--रनीवेद, पुम्पवेद, नपुगकावेद । ये तीनो भेद नौवे गुणस्थान तक होते है। ६ कपाय चार है-क्रोध, मान, माया और लोभ । गुरकी तीन कपाय नीवे गुणस्थान तक और अन्तकी लोग कपाय दगवे गुणस्थान तक रहती है। आगेके गुणस्थानोमे कपाय नही होती। ७ ज्ञान पाच है-गतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनमसे प्रारम्भके तीन ज्ञान मिथ्या भी होते है । ये तीनो मिथ्याज्ञान पहले और दूमरे गुणस्थानमे रहते है। तीसरे मिश्रगुणस्थानगे आदिके तीन मिय्याज्ञानसम्यग्ज्ञान मिले-जुले होते है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान चौथे गुणस्थानसे लेकर वारहवे गुणस्थान तक होते है । मन पर्ययज्ञान छठे प्रमत्तसयतगुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक होता है । केवलज्ञान रायोगकेवली, अयोगकेवली गुणस्थानोमे तथा सिद्धजीवोमे रहता है। ८ सयममार्गणाके सात भेद है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहाविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात ये पाँच सयम, एक सयमासयम और एक असयम । छठे गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकके जीव सयमके धारी होते है। उनमेंसे सामायिकसयम और छोदोपस्थापनासयम ठेसे नौवे गुणस्थान तक होते है। परिहारविशुद्धिसयम प्रमत्तसयत और अप्रमत्तगयत गुणस्थानवाले जीवोके होता है। सूक्ष्मसाम्परायसयम एक सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवे गुणस्थानवाले जीवोके ही होता है। यथाख्यातसयम अन्तो चार गुणस्थानोमें होता है। सयमासयम एक सयतासयत गुणस्थानमे ही होता है । प्रथम चार गुणस्थान वाले जीव असयत होते है उनमे सयम नहीं होता। ___९ दर्शनमार्गणाके चार भेद है-चक्ष दर्शन, अचक्ष दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । चक्षु दर्शन और अचक्ष दर्शन वाले जीव वारहवें गुणस्थान तक होते है । अवधिदर्शन चौथेसे वारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। केवलदर्शन सयोगकेवली, अयोगकेवली और सिद्धोके होता है। १ पट्ख., पु. १, पृ० ३६८-३७८ । • वही, पृ० ३७८-३८५ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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