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________________ 'छक्खंडागम · ५१ कर्मप्रकृतिप्राभृतका उपसंहार करके उसे जिनपालितको पढाकर उसकी परम्परा चलानेके अभिप्रायसे किया था । किन्तु उन्हे ज्ञात हुआ कि मेरी आयु थोडी शेप है. उन्होने अपनी रचनाको जिनपालित के साथ भूतवलिके पास भेज दिया । यदि उन्होने केवल भूतबलिका अभिप्राय जानने के लिये जिनपालितको उनके पास भेजा होता तो भूतबलि अपने अभिप्राय के साथ जिनपालितको पुष्पदन्ताचार्य के पास लौटा देते, स्वय रचना करनेमें न लग जाते । अस्तु, फिर भी यह प्रश्न रह जाता है कि पुष्पदन्ताचार्यने जिनपालितके हाथ केवल 'विसदिसुत्त' ही भेजे थे या पट्खण्डोकी कोई रूपरेखा भी भेजी थी । पट्खण्डोके क्रम तथा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वारोसे उनके उद्धारका जो वर्णन मिलता है, उसे देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि पट्खण्डोकी रूपरेख। किसी एक व्यक्तिकी निर्धारित की हुई नही है, बल्कि दो व्यक्तियोकी और ऐसे दो व्यक्तियोकी – जो आपसमें नही मिल सके, निर्धारित की हुई है । हमारे इस अनुमानकी सत्यताके लिये महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अनुयोगद्वारोके साथ छ - खण्डोका मिलान करके देखे । महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वारोमेंसे प्रथम दो अनुयोगद्वारोसे वेदनाखण्डका उद्धार हुआ, जो चोथा खण्ड है । तीसरे, चौथे, पांचवें और छठे अनुयोगद्वारके बध और वन्धनीय भेदोको लेकर पाँचवाँ वर्गणा खण्ड बना । इसी छठे अनुयोगद्वारके एक भेद बन्धकसे दूसरा खण्ड खुद्दावन्ध बना, और दूसरे भेद बन्धविधानसे छठा खण्ड महाबन्ध बना । शेप दो खण्ड —- पहला और तीसरा भी इसी वन्धविधानके अवान्तर अनुयोगद्वारोसे निष्पन्न हुए । ग्रन्थनाम — मूलसूत्रोमें ग्रन्थका नाम नही दिया । अत नही कह सकते कि इसके रचयिता पुष्पदन्त और भूतवलिने इसे किस नामसे अभिहित किया था । धवलाटीकाके' प्रारम्भमें इसे 'खण्ड सिद्धान्त' कहा है और धवलाकारने कृति अनुयोगद्वारमें लिखा है कि भूतबलि भट्टारकने महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उपसहार करके छ खण्ड किये । इन छ खण्डोके आधार पर ही इसका नाम उत्तरकालमें छक्खडागम प्रसिद्ध हुआ प्रतीत होता है । इन्द्रनन्दि और विवुध श्रीधरने १ 'तदो एयं खंडसिद्ध त पडुच्च' भूतबलि - पुप्फयताइरिया वि कत्तारो उच्चति' - पट्ख०, पु० १, पृ० ७१ । द्दद पुण जीवट्ठाण खडसिद्ध त पडुच्च पुव्वाणुपुव्वीए ट्ठिद छण्ह खडाण पढमखड जीवट्ठाणमिदि वही, पृ० ७४ । २ 'महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छक्वडाणि कयाणि । - पट्ख, पु० ९, पृ० १३३ । पट्खडागमरचनाभिप्राय पुष्पदन्तगुरु ॥ १३७ ॥ एव पट्खडागमरचना प्रविधाय'॥ १४२ ॥ श्रुता०
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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