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________________ ५० : जेनसाहित्यका इतिहास वीरसेन स्वामीने स्पष्ट लिया है कि 'धरगेनानार्थने गिग्निगरकी चन्द्रगुफामें गुप्पदन्त गोर भूतबलिको गगरा महाकर्मप्रकृतिप्राभृत समर्पित कर दिया । तत्पदचात् भूतबलि भट्टाराने श्रुतनदी प्रवाह विच्छेद भय भव्य जीवोके उपकारके लिये महाकर्मप्रकृतिप्रा मृतका उपगहार करके छह सण्ड किये ।' 7 इन्द्रनन्दिने लिगा है कि गुत्पदन्त मुनिने अपने भानजे जिनपालितको पढाने के लिये कर्मप्रकृतिप्राभृतका छ सण्डोमें उपगंहार किया और जीवस्थानके प्रथम अधिकारको ग्नना की ओर उगे जिनपालितको पटाकर भूतबलका अभिप्राय जानने के लिये उनके पास भेजा । उरागे गत्प्रम्पणाके सूयोको सुनकर, भूतबलिने पुगदन्त गुरुको गम रचनाका अभिप्राय जाना । इन्द्रनन्दिने यह भी लिया है कि भूतबलि आचार्यने पद्यण्डागगकी रचना करके उसे पुस्तको लिमाया ओर ज्येष्ठ शुक्ला पंनमीवो उगकी पूजा की। रगीसे यह पञ्चमी श्रुतपञ्चमीके नामगे ग्यात हुई । तत्पश्चात् भूतबलिने उस छाडागमसूत्रके साथ जिनपालितको पुष्पदन्त गुरुके पास भेजा । जिनपालितके हाथमें छक्स डागम पुस्तकको देसकर 'मेरे द्वारा चिन्तित कार्य सम्पन्न हुआ यह जान पुष्पदन्त गुरुने भी श्रुतभक्ति अनुरागरी पुलकित होकर श्रुतपञ्चमी के दिन ग्रन्थकी पूजा की । इस सब कथनगे तो यही प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्ताचार्यने छक्सडागमकी रूपरेखा निर्धारित करके सत्प्ररणाके सूत्रो की रचना की थी । किन्तु धवला इसका समर्थन नही होता, उरामे यह भी नही लिखा कि भूतचलिने छक्सडागमके सूत्रोको रचना करके उन्हें पुष्पदन्ताचार्यके पास भेजे थे । धवलाके अनुसार तो पुष्पदन्ताचार्यके द्वारा सत्प्रम्पणाके सूत्रोको भूतबलिके पास भेजनेका कारण पुष्पदन्ताचार्यका अल्पायु होना था । अत. यह सभव प्रतीत होता है कि छक्सडागमकी रचना पूर्ण होने पर पुष्पदन्त स्वर्गवासी हो चुके हो । किन्तु श्रुतावतारके अनुसार पुष्पदन्ताचार्यने भूतवलिका अभिप्राय जानने के लिए उनके पास सत्प्ररूपणाके सूत्रोको भेजा था और भूतवलिने उन्हें सुनकर जाना कि पुप्पदन्ताचार्यका अभिप्राय छक्खडागमको रचना करनेका है । उन्होने छक्खडागमकी रचना की । इन दोनो कथनोमें हमें धवलाकारका कथन विशेष समुचित प्रतीत होता है, क्योकि पुष्पदन्ताचार्य अकलेश्वरसे लौटते हुए ही अपने भानजे जिनपालितको अपने साथ लेते गये थे और उन्हें जिन दीक्षा भी दे दी थी । ऐसा उन्होने महा १. 'अथ पुष्पदन्तमुनिरप्यध्यापयितु स्वभागिनेय तम् । कर्मप्रकृतिप्राभृतमुपसहार्येव पद्भिरिह खण्डे ॥ - श्रुता० १३४ --
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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