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________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४३५ परिमित शब्दोमें कहा है । इसीम गति आदि मार्गणाओमे गुणस्थानोकी रास्याका निर्देश जैसा प्राचीन बन्धस्वामित्वमें अलगगे किया है, नवीन कर्मग्रन्यमें वैसा नही किया । किन्तु गुणस्थानोको लेकर वन्ध स्वामित्वका कथन इस रीतिमे किया है उनका ज्ञान पाठकको स्वत हो जाता है । ४ षडगीति _पडशीति नामक चतुर्थ वर्मग्रन्थमं प्राचोनकी तरह ही ८६ गाथाएं है । इमोसे दोनोके पडगीति नाममे भी ममानता है। किन्तु प्राचीनकी टीकाके अन्तमें टीकाकारने उसका नाम 'आगमिक वस्तु विचारसार' दिया है, जबकि नवीनके कर्ताने 'सूदमार्य विचार' नाम दिया है। प्राचीनकी तरह नवीनमें भी मुख्य अधिकार तीन ही है-जीवस्थान, मार्गणा स्थान और गुणस्थान । किन्तु गाथामख्या ममान होते हुए भी नवीनमें ग्रन्यकारने विषयका विस्तारपूर्वक कथन किया है। 'भाव' और 'सख्या' का कथन प्राचीनमें नहीं है किन्तु नवीनमे विस्तारसे है। शतक गतक नामक इस पञ्चम कर्मग्रन्थका नाम गतक होते हुए भी प्राचीन शतकसे इसके विपयवर्णनमें अन्तर है । सवमे प्रथम ध्रुववन्धिनी, देगघाती, अघाती, पुण्यस्पा, पापस्पा, परावर्तमाना और अपरावर्तमाना कर्मप्रकृतियोका कथन है । फिर उन्ही प्रकृतियोमें कौन क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भव विपाकी और पुद्गलविपाकी है यह बतलाया है। फिर बन्धके चार भेदोका स्वरूप बतलाकर उनका कयन किया है । प्रकृतिवन्धका कथन करते हुए मूल तथा उत्तरप्रकृतियोमें भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यवन्धोको वतलाया है। स्थितिबन्धका कथन करते हुए मूल तथा उत्तप्रकृतियोकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, एकेन्द्रिय आदि जीवोमें उसका प्रमाण निकालनेकी रीति, और उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति वन्धके स्वामियोका कथन किया है । प्रदेशवन्धका कथन करते हुए वर्गणाओका स्वरूप, उसकी अवगाहना, बद्ध कर्मदलिकोका मूल तथा उत्तरप्रकृतियोमें वटवारा, कर्मके क्षपणमें करण ग्यारह गुणश्रेणियाँ, गुणश्रेणी रचनाका स्वरूप, गुणस्थानोका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल, प्रसगवश पल्योपम सागरोपम और पुद्गल परावर्तके भेदोका स्वरूप, योगस्थान वगैरहका अल्पवहुत्व और लोक आदिका स्वरूप बतलाया है। तथा अन्तमें उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणिका कथन किया है । इनमेंसे वहुतसे कथन प्राचीन शतकमें नही है । कर्मग्रन्थोकी स्वोपज्ञ टीका देवेन्द्रसूरिने अपने पांचो कर्मग्रन्थो पर सस्कृतमें टीका भी वनाई है। और
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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