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________________ २८ : जैनसाहित्यका इतिहास इस प्रकार पन्द्रह अधिकारोकी मूलगाथाओका जोड ९२ है और इनमेसे चारित्रमोहकी क्षपणासे सम्बन्ध रखनेवाली २८ गाथाओमेंसे २१ गाथाओकी भाण्यगाथाओका जोड ८६ है । इन सबका जोड ९२ + ८६ = १७८ होता है । प्रारम्भमे पन्द्रह अधिकारोका नाम निर्देश करनेवाली दो गाथाओको जोडनेमे कुल गाथाओकी सख्या १८० होती है। कसायपाहुडकी गाथासख्या किन्तु कसायपाहुडकी कुल गाथाओकी मख्या २३३ हैं । पूर्वोक्त एकसी अम्मी गाथाओके सिवाय ५३ गाथाएँ और भी है। १२ गाथाएँ सम्बन्धज्ञापक है, ६ गाथाएँ अच्छापरिमाणका निर्देश करती है, सक्रमवृत्तिमे सम्वन्द्व ३५ गाथाएँ है । इन १२ + ६ + ३५ = ५३ गाथाओको १८० मे जोडनेसे कसायपाहुडकी गाथासख्या २३३ होती है । जयधवला-टीकाके रचयिता श्रीवीरसेन म्वामीके अनुसार इन समस्त गाथाओके रचयिता आचार्य गुणधर थे। किन्तु जयधवला 'मे उन्होने स्वय यह गका उठाई है कि जव कसायपाहुडकी गाथासख्या २३३ थी, तो गुणधराचार्यने ग्रन्थके प्रारम्भमे १८० गायाओका ही निर्देश क्यो किया ? वीरसेन स्वामीने उसका समाधान करते हुए लिखा है कि पन्द्रह अधिकारोमे विभक्त गाथाओका निर्देश करनेकी दृष्टिसे गुणधराचार्यने १८० गाथासख्याका निर्देश किया है, किन्तु वारह सम्बन्धगाथाएँ और अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छै गाथाएँ पन्द्रह अधिकारोमसे किसी भी अधिकारसे वद्ध नहीं है, अत उनको छोड दिया है । तब पुन शका की गई कि सक्रमणसम्बन्धी ३५ गाथाएं तो बन्धक नामक अधिकारसे प्रतिबद्ध है, अत उनको १८० के साथ मिलाकर २१५ गाथासख्याका निर्देश करना क्यो उचित नहीं समझा ? इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है कि प्रारम्भके पाँच अर्थाधिकारोमे केवल तीन ही गाथाएँ है और उन तीन गाथाओसे वधे हुए पांच अधिकारोमेसे वन्धक नामक अधिकारसे ही उक्त पैतीस गाथाएँ सबद्ध है, इसलिये उन पैतीस गाथाओको १८० मे सम्मिलित नही किया। क्या इन गाथाओमे कुछ गाथाएँ नागहस्तिकृत भी है ? इस प्रश्नपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि जयधवलाके अनुसार वीरसेन स्वामीसे पहले होनेवाले कुछ टीकाकारोका ऐसा मत रहा है कि एकसौ अस्सी गाथाओके सिवाय जो शेप ५३ गाथाएँ है वे नागहस्तिकृत है । १ क. पा. भा० १, पृ० १८२~१८३ । 'अमीदिसदगाहाओ मोत्तण अवसेससबद्धापरिमाणणि ससक्रमणगाहाओ जेण णाग हत्यिआइरियकथाओ तेण 'गाहासदे असीदे' त्ति भणिदूण णागहत्यिआइरिएण पइज्जा कढा इदि के वि वक्साणाइरिया भणति, तण्ण घडदे ।'-क० पा०, भा० १, पृ० १८३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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