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________________ ४१४ जनसाहित्यका इतिहास क्षायिक सम्यक्त्वके साथ दर्शनलब्धिका-कथन पूर्ण हो जाता है और चारित्रलब्धिका कथन प्रारम्भ होता है। चारित्र लब्धि एक देश और सम्पूर्णके भेदसे दो प्रकारकी है (गा० १६८)। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वके साथ देश चारित्रको ग्रहण करता है । और सादि मिथ्यादृष्टी जीव उपशम सम्यक्त्व अथवा वेदक सम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको धारण करता है । जिस तरह धारण करता है और उस समय जो जो कार्य होते है उन सवका कथन किया गया। सकल चारित्रके तीन प्रकार है-क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक । क्षायोपशमिक चारित्र सातवें और छठे गुणस्थानमें होता है। यह उपशम सम्यक्त्व सहित भी होता है और वेदक सम्यक्त्व सहित भी होता है । (गा० १८९-१९०) । गा० १९५ में म्लेच्छ मनुष्यके भी आर्य मनुष्यकी तरह सकलसयम बतलाया है । उसको टीका मे यह प्रश्न किया गया है कि म्लेच्छ भूमिके मनुष्य सकल सयमको कैसे धारण कर सकते है । उसके समाधानमें कहा गया है कि जो म्लेच्छ मनुष्य चक्रवर्तीके साथ आर्यखण्डमें आते है, और उनका चक्रवर्ती आदिके साथ वैवाहिक सम्बन्ध हो जाता है वे सकल सयम धारण कर सकते है । अथवा चक्रवर्ती आदिसे विवाही गईं म्लेच्छ कन्याओके गर्भसे उत्पन्न सतान, मातृपक्षकी अपेक्षा म्लेच्छ कही जाती है, उसके सयम धारण करना सभव है क्योकि इस प्रकारको जाति वालोको दीक्षाके योग्य होनेका निषेध नही है । वीरसेनने जयधवलाटीकामें यह चर्चा उठाई है। उसीसे टीकाकारने उसे लिया जान पडता है । अस्तु, वेदक सम्यग्दृष्टी जीव क्षायोपशमिक चारित्रको धारण करनेके बाद जब औपशमिकचारित्रको धारण करनेके अभिमुख होता है तो पहले या तो क्षायिकसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है या द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको धारण करता है । क्षायिकसम्यक्त्वकी उत्पत्तिका विधान तो पहले कहा गया है अत' यहाँ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कथन करके चारित्रमोहकी उपशमनाका कथन किया गया है । चारित्रमोहका उपशम करनेपर जीव ग्यारहवे उपशान्तकषाय गुणस्थान १ 'म्लेच्छ-भूमिज-मनुष्याणा सकलसयमग्रहण कथ सभवतीति नाशकितव्य दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजाना चक्रवर्त्यादिभि सह जात वैवाहिकसम्बन्धाना सयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा तत्कन्यकाना चक्रवर्त्यादिपरिणीताना गर्भेषूत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छ व्यपदेशभाज सयमसम्भवात् तथाजातीयकाना दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात् ॥१९५॥ -ल० सा० टी० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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