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________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४१३ लब्धि अर्थात् प्राप्तिका कथन होनेसे ग्रन्थका नाम लब्धिसार' रखा गया है । इसकी प्रथम गाथामें पच परमेष्ठीको नमस्कार करके सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र लब्धिको कहनेकी प्रतिज्ञा ग्रन्थकारने की है। ___ सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका कथन है। उसकी प्राप्ति पाँच लब्धियोके होने पर ही होती है। वे पाँच लब्धिया है-क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि । इनमेंसे आरम्भकी चार लब्धियाँ तो सर्वसाधारणके होती रहती है किन्तु करणलब्धिके होने पर ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। इन लब्धियोका स्वरूप ग्रन्थके प्रारम्भमें दिया गया है। अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करणका स्वरूप गोम्मटसारमें भी दिया गया है। इनकी प्राप्तिको ही करणलब्धि कहते है । अनिवृत्ति करणके होनेपर अन्तमुहूर्त के लिये प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालमें कम से कम एक समय और अधिक से अधिक ६ आवलि काल शेप रहने पर यदि अनन्तानुबन्धी कषायका उदय आ जाता है तो जीव सम्यक्त्वसे च्युत होकर सासादन सम्यक्त्वी हो जाता है और उपशम सम्यक्त्वका काल पूरा होने पर यदि मिथ्यात्व कर्मका उदय होता है तो मिथ्यादृष्टि हो जाता है। __इस तरह गाथा १०९ पर्यन्त प्रथमोपशम सम्यक्त्वका कथन है । इस प्रकरणमें आगत गाथा ९९ कसायपाहुडसे ली गई है। गाथा १०६, १०८ और १०९ जीवकाण्डके प्रारम्भमें भी आई है। गाथा ११० से क्षायिक सम्यक्त्वका कथन प्रारम्भ होता है। दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय होनेसे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। किन्तु दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्म भूमिका मनुष्य तीर्थंकरके पादमूलमे अथवा केवलि श्रुतकेवलीके पादमूलमे करता है (गा० ११०)। और उसकी पू। वही अथवा सौधर्मादिकल्पोमें अथवा कल्पातीत देवोंमें अथवा भोगभूमिमें अथवा प्रथम नरकमें करता है क्योकि बद्धायुष्क कृतकृत्यवेदक मरकर चारो गतियोमें जन्म ले सकता है (गा० १११)। अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शन मोहकी तीन, इन सात प्रकृतियोके क्षयसे उत्पन्न हुआ क्षायिक सम्यक्त्व मेरुकी तरह निष्कम्प, अत्यन्त निर्मल और अक्षय होता है (गा० १६४)। क्षायिक सम्यग्दृष्टी उसी भवमे, अथवा तीसरे भवमें अथवा चौथे भवमें मुक्त हो जाता है । (गा० १६५) । १ 'सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्रयोलब्धि प्राप्तिर्यस्मिन् प्रतिपाद्यते स लब्धिसाराख्यो ग्रन्थ ।'ल. सा०, टी० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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