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________________ ३८२ · जेनसाहित्यका इतिहारा अपने बुतिरगी गमागे पदगमको या पद्गगागम गिद्धान्तको राम्यक् रीतिगे गिलान्त मन्यो अन्यासीले 'गिद्धान्त नकरों' पद देनेकी परम्पराका सूत्रपात काय शिगने नागे जिया, ग विषयगे निग्नित् पगे कुछ गहना शक्य नहीं है। किन्तु जी ना अवश्य ही जगपवला प्रगस्तिके उग ग्लोक के आवारगर गी गई होनी चाहिये जिसमे वीरमेन ग्यामीफे लिये कहा गया है कि भरत नसतीगो आजागी तरह जिनकी भारती पदमागममें स्पलित नही हुई। अत पवला-जयभवलागी गनारे पपनान् विक्रमको दगवी पताब्दीने ही उम पदवीका गूगपात होना चाहिये । नेमिचन्द्र गुरु-- __धी नेमिनन्द्र गिद्धान्त चक्राने अभयनन्दि, वीरनन्दि और उन्द्रनन्दिको अपना गुग बतलाया है। कर्मकाण्डमें दो स्थानोपर उन्होंने इन तीनोको नमस्कार किया है। उनमेमे एक ग्यानपर कहा है --जिनके चरणोके प्रमादमे वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिा यत्स्य अनन्त रासारस्पी समुद्रगे पार हो गया उन अभयनन्दि गुरुको मैं नमस्कार करता हूँ। दूसरे स्थानपर लिसा है'-'अभयनन्दिको, श्रुतसमुद्रके पारगामी इन्द्रनन्दि गुरुको और वीरनन्दिनाथको नमस्कार करके प्रकृतियोंके पत्यय-सारणको नगा।' लब्धिमारमें उन्होंने लिखा है-वीरनन्दि और उन्द्रनन्दिके वल्य और अभयनन्दिो शिष्य अस्पशानी नेगिचन्दने दर्शनलब्धि और चारिनलब्धिका फायन किया। किन्तु पिलोकसारमें उन्होंने अपनेको अभयनन्दिका वत्स्य मात्र लिगा है । गैप दोनो आचार्योका कोई निर्देश नही किया । इन तीनोभेमे वीरनन्दि तो चन्द्रप्रभ चरितके कर्ता जान पडते है क्योकि १. 'प्रीणितप्राणिसपत्तिराक्रान्ताशेपगोनरा । भारती भारतीवाज्ञा पट्सण्डे यस्य नास्खलत् ॥२०॥ ज० ध० प्र० । २ 'जस्स य पायपसाएणणतससारजलहिमुत्तिण्णो । वीरिंदणदिवच्छो णमामि त अभयणदि गुरु ॥४३६।।-कर्म का ३ णमिऊण अभयणदि सुदसागरपारगिदणदिगुरु । वरवीरणदिणाह पयडीण पच्चय वोच्छ ॥७८५॥-कर्म का० ४ वीरिंदणदिवच्छेणप्पसुदेणभयणदिसिस्सेण । दसण चरित्तलद्धी सुसूयिया मिचदेण ॥६४८॥-ल० सा० ५ इदि मिचदमुणिणाणप्पसुदेणभयणदिवच्छेण । रइओ तिलोयसारो खमतु त बहुसुदाइरिया ।।-त्रि० सा०
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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