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________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३८१ वत्तीस प्रकरण है । अन्तमें श्रावक धर्मका निस्पण है। पूरे ग्रन्यमे ९२२ पद्य है। स० १०७० में धर्म परीक्षाकी रचना की थी। इसमें सुन्दर कथाके स्पमे पुराणोकी उटपटाग कथाओ और मान्यताओकी मनोरजक स्पमे हंसी उडाई है। एक उपासकाचार रचा था जो अमितगति श्रावकाचारके नाममे प्रसिद्ध है। आराधना नागमे गिवार्यको प्राकृतमें निवद्ध भगवती आराधनाका सस्कृत पद्योमे अनुवाद किया था। इसके सिवाय मामायिक पाठ, भावना द्वात्रि शति भी रचे थे । इन ग्रन्थोमें उनका रचनाकाल नही दिया । १०७३ स०में सस्कृत पञ्च सग्रहकी रचना मसूतिका पुरमें की थी। यह धारके पास उसमे सात कोस दूर मसीद विलोदा नामक गाँव बताया जाता है। गोम्मटसार और उसके कर्ता विक्रमकी नीवी शताब्दीम धवला और जयधवलाकी रचना होनेके पश्चात् इन दोनो टीका ग्रन्थोने अपने मूल ग्रन्थोके सिद्धान्त नामको अपना लिया और ये दोनो धवलसिद्धान्त और जयधवल सिद्धान्तके नामसे ख्यात हो गये । वि० स० १०२२ में रचकर समाप्त हुए पुष्पदन्त कविके महापुराणमें उनका स्मरण इन्ही नामोंसे कविने किया है । यह हम पहले भी लिख आये है। ___ पट्खण्डागम और कसायपाहुडपर टीकामोका निर्माण वरावर होता रहा है यह भी पहले विस्तारमे लिख आये है, और उन्हीके द्वारा कालक्रमसे उनके पठनपाठनकी प्रवृति भी चालू रही है। धवला और जयधवला टीकाके निर्माणके पश्चात् भो वह प्रवृत्ति चालू रही, किन्तु उसका आधार ये दोनों टीकाएं हो गई और धवल तथा जयधवल सिद्धान्त ग्रन्थोका अभ्यास एक बहुत ही महत्वपूर्ण मापदण्ड सिद्धान्त विपयक विद्वत्ताका माना जाने लगा। विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दीमें दक्षिणमें नेमिचन्द्र नामके एक आचार्य हुए। उनकी उपाधि 'सिद्धान्त चक्रवर्ती' थी। ये दोनो सिद्धान्त ग्रन्थोके अधिकारी विद्वान थे। इन्होने धवल सिद्धान्तका मथन करके गोम्मटसार नामक ग्रन्थकी रचना की और जयधवल सिद्धान्तका मथन करके लब्धिसार ग्रन्थकी रचना की। इन्होने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें लिखा है जह चक्केण य चक्की छक्खण्ड साहिय अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खण्ड साहिय सम्मं ॥३९७॥ जिस तरह चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नसे भारतवर्पके छ खण्डोको विना किसी विघ्न-बाधाके साधता है या अपने अधीन करता है, उसी तरह मैंने (नेमिचन्द्रने) १ 'त्रिसप्तत्याधिकेऽन्दाना सहस्र शकविद्विष । मसूतिका पुरे जातमिद शास्त्र मनोरमम् ॥६॥--सं० १० सं० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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