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________________ अन्य कर्म साहित्य : ३४१ जैसे चौथे अधिकार में पंचराग्रहकारने शतक ग्रन्थका सग्रह किया है और उसीके कारण अधिकारका नाम शतक रखा है । वैसे ही पांचवें अधिकारमें सित्तरी अथवा सप्ततिका नामक प्रकरणका सगह है और उसीसे इस अधिकारका नाम सत्तरि या सप्तति रखा गया है। सित्तरी ग्रन्यका परिचयादि पहले लिख आये है । जो विषय सित्तरीका है वही इस पाचवें अधिकारका है। इस पांचवेअधिकारमें भगलाचरणके पश्चात् सित्तरीके आदिको पांच गाथाएँ यथाक्रमसे दी हुई है । उनके पश्चात् एक गाथा इस प्रकार माती है। मूलपयडीसु एव अत्थोगाढेण जिह विही भणिया । उत्तर पयडीसु एव जहाविहिं जाण वोच्छामि ॥७॥ इसमें कहा है कि मूलप्रकृतियोमें कथनकर दिया अब उत्तर प्रकृतियोमें कहते है । इसके पश्चात् सि० की छठी गाथा आती है । उसमें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मक बन्ध स्थान, उदय स्थान और सत्वस्थान पचप्रकृति रूप कहे है । मागे दर्शनावरणीय कर्मके वन्वादिका कथन है । किन्तु सितरीकी दर्शनावरण कर्मके कथन सम्बन्धी गाथाएँ पञ्चसग्रहमें नहीं है । उनके स्थानमें पचसग्रहकारने अपनी स्वतत्र गाथाएं रची है । इसका कारण शायद यह प्रतीत होता है कि सप्ततिकामें क्षीण कषायमें निद्रा प्रचलाका उदय नहीं माना है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें माना गया है । श्वे. पचसग्रहमें दोनो मतोको स्थान दिया गया है। सितरीमें वेदनीय गोत्र और आयुकर्मके भगोका कथन नहीं है किन्तु पचसग्रहकारने उनका कथन किया है। आगे मोहनीय कर्मका कथन है और उसका आरम्भ सित्तरीकी दसवी गाथासे होता है। उसकी सख्या प० स० में २५ है। दस से लेकर १६ तक सित्तरीकी गाथाएं पचसग्रहमें मिलती है । प्रत्येक गाथा का स्पष्टीकरण दो एक गाथाओंसे आवश्यकताके अनुसार किया गया है। सित्तरीको गाथा १७, १८, २०, २१, २२ पञ्चसग्रहमें नही है। मोहनीय कर्म सम्बन्धी कथनके उपसंहार परक २३ वी गाथा है । २४वी गाथासे नामकर्मके के बन्ध स्थानोका कथन आरम्भ होता है। पं० स० में इसकी संख्या ५२ है। सित्तरीकी उक्त गाथामें केवल नामकर्मके वन्धस्थानोको गिनाया है। पचसग्रहमें उसका विवेचन ४५ गाथाओंके द्वारा किया है । यही कथन शतक नामा चौथे अधिकारमें भी है । अत यह कथन पुनरुक्त है। दोनो प्रकरणोकी गाथाएं भी एक ही है। इसके पश्चात् सित्तरीकी २५ वी गाथा आती है। इसमें नामकर्मके उदयस्थानोंका कथन है । मलयगिरिकी टीकामें इस गाथाका न० २६ है मत गणनामें एकका व्यतिक्रम हो गया है । २७-२८ वी गाथा जिनमें नामकर्मके उदय स्थानोंके
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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