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________________ ३२८ : जैनसाहित्यका इतिहास हुए कहा है कि इस ग्रन्थमें शतक अदि पांच ग्रन्थोको सक्षिप्त किया गया है अथवा इसमे पाँच द्वार है इसलिए इसका पचसग्रह नाम सार्थक है। शतक आदि पाँच ग्रन्थोका नाम ग्रन्थकार ने नही बताया। किन्तु उनकी स्वोपज्ञ टीकामें कर्मस्तव और सप्ततिका ग्रन्थोका नाम आया है। तथा दूसरे भागका नाम कर्मप्रकृति है जो शिवशर्मरचित कर्मप्रकृतिके आधार पर रचा गया है। अत तदनुसार शतक, सप्ततिका, कर्मप्रकृति और कर्मस्तव इन चार ग्रन्थोका इस पचसंग्रहमें संक्षेप किया गया है ऐसा कहा जा सकता है। किन्तु टीकाकार मलयगिरिने लिखा है कि इस पचसग्रहमें शतक, सप्ततिका, कषाय प्राभृत, सत्कर्म, और कर्मप्रकृति इन पाँच ग्रन्थोका संग्रह है अथवा योगोपयोग विषय मार्गणा, वधक, वधव्य, बन्धहेतु और बन्धविधि इन पांच अर्थाधिकारोका सग्रह है इसलिए इसका नाम पचसग्रह है । पंचसग्रह नामके इस अर्थक प्रकाशमें एक अर्थ तो दि०५० स० में स्पष्टरूपसे घटित होता है कि उसमें भी जीवसमास, कर्मप्रकृतिस्तव, बन्धोदयोदीरणास्तव, शतक और सप्ततिका नामक पाँच अधिकार है, इसलिए इसका पचसनह नामका सार्थक है। किन्तु क्या श्वे० प० स० की तरह दि० प० स० में भी पांच ग्रन्योका संग्रह किया गया है, यह प्रश्न विचारणीय है इसके समाधान के लिए हमें प्रत्येक अधिकार का तुलनात्मक परिशीलन करना होगा। १ जीव समास और सत्प्ररूपणा इस दि० प० स० के प्रथम अधिकार का नाम जीवसमास है। इसमें २०६ गाथाएँ है । प्रथम गाथा में अरहन्तदेवको नमस्कार करके जीवका प्ररूपण करने की प्रतिज्ञा की है। इस गाथापर प्राकृतमें चूर्णि भी है। दूसरी गाथामें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति प्राण, सज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणाओको कहा है। इन्ही बीस प्ररूपणाओका कथन इस जीव समास नामक अधिकारमें है । षट्खण्डागम के प्रारम्भिक सत्प्ररूपणा सूत्रो में भी गुणस्थान और मार्गणाओका कथन है । किन्तु इस प्रकारसे वीस प्ररूपणाओ का कथन उसमें नहीं है । सत्प्ररूपणा सूत्रोको धवला टीका गुण स्थान और मार्गणाओका कथन वीर १ सयगाइ पच गया जहारिह जेण येत्थ सखिता। दाराणि पच अहवा तेन जहत्थाभि हाणमिद ॥२॥-श्वे० प० स०। 'एवमेकादश भगा . सप्तति काकारमतेन । कर्मस्तवकारमतेन पञ्चानामप्युदयो भवति ततश्च त्रयोदशभगा' -१० स० स्वो टी० भा० ३ गा० १४ । 'पचाना शनक-सप्ततिका-कपायप्रामत-सत्कर्म-कर्मप्रकृति लक्षणाना ग्रन्याना अथवा पचानामर्थाधिकाराणा योगोपयोगविषयमार्गणा -बन्धक-बधन्य-गन्धहेतु विधि लक्षणाना सग्रह पच सग्रह ।'-श्वे० १० स०, टी. पृ. ३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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