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________________ अन्य कर्मसाहित्य ३२७ जानेवाली बतलाया है और जिनकी सख्या सो से भी ऊपर है, वे सब गाथाएँ पचसंग्रह प्रथम अधिकारमें जिसका नाम जीव समास है, पाई जाती है । उसपरसे प० परमानन्दजीने अपने लेख में यह निष्कर्ष निकाला था कि धवलाकारके सामने पचसंग्रह अवश्य था । इसपर आपत्ति करते हुए मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीने लिखा था- 'कम-से-कम जबतक धवलामें एक जगह भी किसी गाथाके उद्धरणके साथ पंचसंग्रहका स्पष्ट नामोल्लेख न बतला दिया जाये तवतक मात्र गाथामोकी समानता परसे यह नही कहा जा सकता कि धवला में वे गाथाएँ इसी पचसंग्रह परसे उद्धृत की गई है जो खुद भी एक सग्रह ग्रन्थ है ।' ( पु० वाक्य सू० प्रस्ता०, पृ० ९५ ) । मुख्तार साहबको आपत्ति बहुत ही उचित थी । किन्तु धवला' में ही एक स्थान पर 'जीवसमासए वि उत्त' करके नीचेकी गाथा उद्धृत है छप्पच णव विहाण अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाण | आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत || यह गाथा पचसग्रहके अन्तर्गत जोव समास नामक प्रथम अधिकारमें मौजूद है और सत्प्ररूपणाको घवलामें उद्धत लगभग १२५ गाथाएँ भी जीव समास नामक अधिकारकी ही है । अत' इस उद्धरण से यह बात तो निर्विवाद हो जाती है कि पचसंग्रहका कम-से-कम जीव समास नामक अधिकार तो वीरसेन स्वामी के सामने वर्तमान था । किन्तु जहाँ उक्त उद्धरणमे यह बात सिद्ध होती है वहां एक शका भी होती है कि वीरसेन स्वामीने पचसंग्रहका नामोल्लेख न करके उसके अन्तर्गत अधिकारका नाम निर्देश क्यो किया ? यदि धवलामें केवल जीव समाससे हो उद्धरण लिये होते तो कहा जा सकता था कि पचसग्रहके अन्य अधिकार वीरसेन स्वामीके सामने नही थे । किन्तु 'उक्त च' करके उद्धृत कुछ गाथाएँ पचसग्रहके अन्य अधिकारो में पाई जाती है । इसीसे हमें यह सन्देह उत्पन्न हुआ कि पचसग्रह नाम क्या पीछे से दिया गया है । इस सन्देहके अन्य भी कारण है और उन्हें बतलाने के लिये ग्रन्थी आन्तरिक स्थिति आदि पर भी प्रकाश डालना आवश्यक है । उससे पहले एक आवश्यक जानकारी करा देना उचित होगा । पचसग्रह नामकी सार्थकता - चन्द्रपि महत्तरकृत पचसंग्रहके आरम्भ में पचसग्रह नामकी सार्थकता बतलाते O -पटख पु० ४, पृ० ३१५।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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