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________________ १६ . जैनसाहित्यका इतिहास करके यतिवृपभने उसके ऊपर चूणिमूनोंकी रचना की थी। उन चूणिसूत्रोम यतिवृपभने 'एसा कम्मपयडीसु' के द्वारा कर्मप्रकृतिका निर्देश किया है । इरामे यह (प्रकट होता है कि यतिवृपभ महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके भी ज्ञाता थे। सम्भवतया उसका भी अध्ययन उन्होने नागहस्तीसे किया होगा। इससे भी नन्दिसूत्रमें निर्दिष्ट नागहस्ती और जयधवलामे निर्दिष्ट नागहस्ती एक प्रतीत होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि चूंकि कपायप्राभृत और कर्मप्रकृति दोनो कर्मसिद्धान्तसे सम्बद्ध थे, इसलिए दोनोके कुछ प्रतिपाद्य विपयोमे गमानता थी । दिगम्बर परम्परामें तो 'कर्मप्रकृति' नामक कोई गन्य अभीतक उपलब्ध नहीं है किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें कर्मप्रकृति नामक एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो मुक्तावाई ज्ञानमन्दिर डभोई (गुजरात) से प्रकाशित हुआ है। उसके कर्ताका नाम शिवशर्मसूरि कहा जाता है । किन्तु अभी वह निर्विवाद नही है । कर्मप्रकृतिको उपान्त्य गाथामें कहा है'--'मैंने अल्पबुद्धि होते हुए भी जैसा सुना वैसा कर्मप्रकृतिप्रामृतमे इस ग्रन्यका उद्धार किया । दृष्टिवादके ज्ञाता पुरुप स्वलिताशोको सुधारकर उनका कथन करे।' इस ग्रन्थपर एक चूणि है । उसके आरम्भमें लिखा है कि-'विच्छिन्न कर्मप्रकृति महाग्रन्थके अर्थका परिज्ञान करानेके लिए आचार्य ने उसीका मार्थक नामधारी कर्मप्रकृतिसगहणी प्रकरण प्रारम्भ किया है ।' अत यह ग्रन्थ प्राचीन होना चाहिए। इसके सक्रमकरण नामक अधिकारमे कपायप्राभृतके बन्धक महाधिकारके अन्र्तगत सक्रम-अनुयोगद्वारकी तेरह गाथाएं अनुक्रमसे पाई जाती है । तथा सर्वोपशमनानामक प्रकरणमे कपायप्राभृतके दर्शनमोहोपशमना नामक अधिकारकी चार गाथाएँ पाई जाती है । दोनो ग्रन्योमे आगत उक्त गाथाओके कुछ पदो और शब्दोमें व्यतिक्रम तथा अन्तर भी पाया जाता है। ____ यहाँ इस वातके निर्देशसे केवल इतना ही अभिप्राय व्यक्त करना है कि कपायप्राभृतके ज्ञाता कर्मप्रकृतिके और कर्मप्रकृतिके ज्ञाता कपायप्राभृतके अशत या पूर्णत ज्ञाता होते थे । अत नागहस्ती दोनोके ज्ञाता थे और उन्हीकी तरह यतिवृपभ भी दोनोके ज्ञाता थे । किन्तु कपायप्राभृतके वह विशिष्ट ज्ञाता थे। इसके सिवाय आर्य मा और नागहस्तीको महावाचक कहा गया है । उधर नन्दीसूत्रमे नागहस्तीके वाचकवशका निर्देश है इन सब बातोके प्रकाशमें दोनो परम्पराओके उक्त दोनो आचार्य हमे तो अगल-अलग व्यक्ति प्रतीत नहीं होते। किन्तु ऐसी स्थितिमें यह प्रश्न पैदा होना स्वाभाविक है कि वे किस परम्पराके थे-दिगम्बर थे या श्वेताम्बर ? क्योकि यो १ 'इय कम्पप्पगडीओ जहा सुर्य नीयमप्पमइणावि । सोहियणा भोगकय कहतु वरदिठिीवायन्नु ।"
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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