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________________ कसायपाहुड · १५ उपदेशका निर्देश अवश्य करते है, किन्तु किसका उपदेश पवाइज्जमाण और किसका उपदेश अपवाइज्जमाण है इसकी कोई चर्चा नही करते। यह चर्चा करते है जयधवलाकार, जिन्हें इस विपयमें अवश्य ही अपने पूर्वके अन्य टीकाकारोका उपदेश प्राप्त रहा होगा । ऐसी अवस्थामें आर्यमक्षु, नागहस्ती तथा यतिवृपभके गुरुशिष्यभावको सहसा काल्पनिक और भ्रान्त भी नही कहा जा सकता । ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि क्या दिगम्बर परम्परामें आर्यमक्षु और नागहस्ती नामके श्वेताम्बर परम्पराके उक्त नामधारी दोनो आचायोंसे भिन्न कोई दूसरे ही भाचार्य हुए है जो महावाचक और क्षमाश्रमण जैसी, उपाधियोसे भूपित थे ? किन्तु इस विपयमें कहीसे प्रकाश प्राप्त नही होता, क्योकि किसी दिगम्बर पट्टावलीमे इन आचार्योंका नाम नही मिलता । इसके सिवाय दोनोकी तुलना करनेसे कतिपय बातोमें समानता भी पायी जाती है । श्वेताम्वर परम्पराके आर्गमगुकी तरह दिगम्बर परम्पराके आर्यमक्षु भी नागहस्ती से जेठे थे, क्योकि जयधवलाकारने सर्वत्र नागहस्ती से पहले आर्य मक्षुका नाम निर्देश किया है । दूसरे, मगलाचरणमें तो आर्य मक्षुको ही विशेष महत्त्व देते हुए लिखा है—'जिन आर्यमक्षुने गुणधर आचार्यके मुखसे प्रकट हुई गाथाओके समस्त अर्थका अवधारण किया, नागहस्ती सहित वे आर्यमक्षु हमें वर प्रदान करें ।' यहाँ नागहस्तीका केवल नाम निर्देश किया है और आर्यमक्षुको गुणधरकृत गाथाओके समस्त अर्थका अवधारक कहा है । किन्तु आर्यमक्षुको ज्येष्ठता देनेपर भी जयधवलाकारने उनके उपदेशको 'अपवाइज्जमाण' और नागहस्तीके उपदेशको 'पवाइज्जमाण' कहा है । जो उपदेश सर्वाचार्य' सम्मत होता है और चिरकालसे अविच्छिन्न सम्प्रदायके क्रमसे चला आता हुआ शिष्यपरम्पराके द्वारा लाया जाता है उसे पवाइज्जमाण कहते है । किन्तु जयधवलाकारने आर्यमक्षुके सभी उपदेशोको 'अपवाइज्जमाण' नही कहा है । ऐसे भी प्रसग है जहाँ दोनोके उपदेशोको 'पवाइज्जमाण' कहा है । परन्तु ऐसे प्रसग वे ही है जिनमें आर्यमक्षु और नागहस्तीमें मतैक्य है । इससे यह प्रकट होता है कि नागहस्तीके उपदेश ही पवाइज्जमाण माने जाते थे - आर्यमक्षुके नही । उधर श्वेताम्बर साहित्यमें आर्य' मगुकी एक कथा पाई जाती है, जिसमें लिखा है कि आर्य मग मथुरामें जाकर भ्रष्ट हो गये थे और मरकर यक्ष हुए थे । शायद इसीसे उनके उपदेशोका मूल्य नही रहा था । इत्यादि बातोसे दोनो परम्पराओके उक्त समान नामवाले दोनो आचार्य एक ही प्रतीत होते है । इस सम्बन्धमें एक बात और भी उल्लेखनीय है । नन्दिसूत्र के अनुसार नागविशिष्ट ज्ञाता थे और जयघवलाके-. नागहस्ती से कपायप्राभृतका हस्ती कर्मप्रकृति ( महाकर्मप्रकृतिप्राभृत) के अनुसार कपायप्राभृतके विशिष्ट ज्ञाता थे । ४
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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