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________________ २९४ : जैनसाहित्यका इतिहास देवेन्द्रसूरिने अपने नवीन कर्मग्रन्थोकी स्वोपज्ञ टीकामे यद्यपि कर्मप्रकृतिके नामसे ही उसका उल्लेख किया है। तथापि एक स्थल' पर कर्मप्रकृति-संग्रहणी नामसे ही उसका निर्देश किया है । अत ग्रन्थका प्राचीन नाम कर्मप्रकृति-सग्रहणी है । उसीका सक्षिप्त रूप कर्मप्रकृति है। बृहत्कर्म-प्रकृति नव्य कर्म-ग्रन्थाकार श्रीदेवेन्द्रसूरिने स्वोपज्ञ टीका एक स्थल पर वृहत्कर्मका निर्देश किया है । कर्म विपाक नामक प्रथम ग्रन्यकी सातवी गाथामें उन्होने श्रुतज्ञानके यद्यपि पर्याय पर्याय-समास, आदि वीस भेदोको गिनाया है। शतकचूणिमें भी विल्कुल ऐसी ही एक गाथा उद्धृत है जिसमें श्रुतज्ञानके ये वीस भेद गिनाये गये। श्वेताम्वर सम्प्रदायमें श्रुतज्ञानके ये वीस भेद केवल कामिकोमें ही मिलते है, सैद्धान्तिक पक्ष इनसे भिन्न श्रुतज्ञानके चौदह भेद मानता है और वे ही भेद श्वेताम्बर साहित्यमें वहुतायतसे मिलते है । अस्तु,उक्त गाथा ७ की स्वोपज्ञ टीकामें श्रुतज्ञानके बीस भेदोको संक्षेपसे बतला कर लिखा है कि विस्तारसे जाननेके इच्छुक को 'वृहत्कर्मप्रकति' अन्वेषण करना चाहिये । वर्तमान कर्मप्रकृतिमें श्रुतज्ञानके वीस भेदोकी गन्ध भी नही है तथा इस कर्मप्रकृतिका तो देवेन्द्रसूरिने कर्मप्रकृति नामसे ही उल्लेख किया है। अत' यह 'वृहत्कर्मप्रकृति' इस कर्मप्रकृतिसे भिन्न होनी चाहिये । उसकी भिन्नता और महत्ताकी सूचना करनेके लिए ही देवेन्द्रसूरिने उसके नामके साथ 'वृहत्' शब्द जोडा जान पडता है। किन्तु विक्रमकी १३-१४वी शतीके ग्रन्थकारके द्वारा वृहत्कर्म-प्रकृतिका उल्लेख देखकर उसका आधार खोजते हुए हमें 'शतक' ग्रन्थकी मलधारी हेमचद विरचित टीकामें इस तरहका उल्लेख मिला। उन्होने श्र तज्ञानके बीस भेदोका सामान्य कथन करके विस्तारार्थीको 'वृहत्कर्म चूर्णिका अन्वेषण करनेकी प्रेरणा की है। - पयडीसगहणीए-पृ० ६३ । 'अन्तर करणविट्टी जहा कम्मपयडीसग्रहणीए -पृ० ६४।-सित० चू०। १. यदुक्त कर्मप्रकृति संग्रहण्याम्-आहारतित्थगहा भज्जति ।-शतक टीका० पृ० ११ २–'विस्तारार्थिना वृहत्कर्म प्रकृतिरन्वेषणीया-स० च० क०, पृ० १९ । ३,–'एवमेते सक्षेपत. श्रुतज्ञानस्य विंशतिर्भदा दर्शिता विस्तारार्थिना तु वृहत्कर्म प्रकृतिं चूर्णिरन्वेषणीया।-शतक टी० गा० ३८ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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