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________________ - १२ : जैनसाहित्यका इतिहारा केवल यही व्यक्त होता है कि वे पूर्वविदोकी परम्परामेमे थे। किन्तु उगगे वाचकवशकी स्थितिपर कोई प्रकाश नही पडता। यह हम ऊपर लिस आये है कि आवश्यकनियुक्तिमे गणधरबंगके गाथ वाचकवशको भी नमस्कार किया है। विगेपावश्यक मायके रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने भाग्यमे उसका विवेचन करते हुए लिया है कि 'यदि गणधरी और वाचकोका वश न होता तो जिनवर भगवान् और गणधरोसे उत्पन्न हुए श्रुतका ग्रहण, धारण और दान आदि कौन करता? जैगे गणाधिप (गीतमादि) और गणधर (जम्बूरवामी आदि शेप आचार्य) द्वादमागके वक्ता होनेके कारण शिष्योके हितकारी है, वैगे ही उस सूत्रके पाठक उपाध्याय गी शिष्योके हितकारी है । अतः उन उपाध्यायोके वशको भी नमस्कार करते है ।' इस भाप्यके अर्थसे स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने वाचकवगमे द्वादशागके पाठकोकी परम्पराका ही गहण किया है। उन्होने वाचकानामके किसी विशेप वशकी सूचना नहीं की। अत मूल द्वादशागके वेत्ता वाचक कहे जाते थे और उनको परम्पराको वाचकवश कहते थे। किन्तु नन्दिसूत्रम जो नागहस्तीके वाचकवशका उल्लेख है वह उक्त सामान्य अर्थमे प्रयुक्त न होकर विशेष अर्थम प्रयुक्त हुआ है। (आर्यमंगु और नागहस्तीमेंसे आर्यमगुकी गणना दशपूवियोमें की जाती है, क्योकि वे अन्तिम दशपूर्वी वज्रस्वामीसे पहले हुए माने जाते है । किन्तु नागहस्ती वज्रस्वामीके पश्चात् हुए थे, अत वे दशपूर्वी नही थे । वनस्वामीके उत्तराधिकारी आर्यरक्षित थे । वे सम्पूर्ण नौ पूर्व और दशम पूर्वके २४ यविक मात्रके पाठी थे। उनके शिष्य दुर्वलिका पुष्पमित्र नी पूर्व पढकर भी नवें पूर्वको भूल गये।) प्रभावकचरितमें आर्यनन्दिलको आर्यरक्षितके वशका तथा साढे नीपूर्वी वतलाया है। किन्तु नन्दीसूत्रकी टीकामें मलयगिरिने आर्यनन्दिलको आर्यमगुका शिष्य वतलाया है और आर्य नन्दिलके शिष्य नागहस्ती थे। नन्दिसूत्रमे आर्यमगुको श्रुतसागरका पारगामी और आर्यनन्दिलको दर्शन, ज्ञान एव तपमे नित्य उद्यत तथा नागहस्तीको कर्मप्रकृतिमें प्रधान बतलाया है । टीकाकार मलयगिरिने नदिसू० टीकामें 'कर्मप्रकृति प्रसिद्ध है' मात्र इतना ही लिखा है। किन्तु कर्मप्रकृतिकी टीकामें उन्होने दूसरे अनायणी पूर्वके पचम वस्तु अधिकारके अन्तर्गत चतुर्थ प्राभृतका १. 'जिणगणहरुग्गयस्म वि सुयस्स को गहणधरणतणाइ कुणमाणो यह गणहरवायगवसो न होज्जाहि ॥१०६६।। सीसहिया वत्तारो गणाहिवा गणहरा तपत्थस्स सुत्तस्सोवज्झाया वसो तेसिं परम्परओ ॥१०६७॥'-विशे० भा० । २ विशे० भा०, टी, गा० २५११ । ३ 'आर्यनन्दिल प्रवन्ध'-प्र० च०।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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