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________________ धवला-टीका : २५१ सस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषामें की थी। और वे सिद्धान्तग्रन्थोके अनुपम व्याख्याता थे। उन्होने अपनी टीकाओमें प्रकृत विषयोका स्पष्टीकरण और सम्बद्ध प्रासंगिक विषयोका विवेचन इस रीतिसे किया है कि वादके टीकाकारोके लिखनेके लिए कुछ शेष नही रहा और सम्भवतया इस कारण भी धवला और जयधवलाके पश्चात् सिद्धान्तग्रन्थोपर कोई टीका नही लिखी गइ। इतना ही नही, किन्तु इन टीकाओके सुविस्तृत परिमाणर्मे और उनमें चर्चित विषयोकी प्राञ्जलतामें उनकी मूलाधार कृति ऐसी समा गई कि षट्खण्डागमसूत्र धवलसिद्धान्तके नामसे और कषायपाहुड जयधवलसिद्धान्त नामसे ही प्रख्यात हो गये। ____ईसाकी १०वी शताब्दीके ग्रन्थकार अपभ्रशकवि पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें उनका उल्लेख इसी नामसे किया है । वास्तवमें दोनो टीकागन्य जैन सिद्धान्तविषयक चर्चाओके भण्डार है । वीरसेनस्वामीकी किसी स्वतन्त्र ग्रन्थरचनाका कोई संकेत नहीं मिलता। ' 'णउ बुझिउ आयमसद्दधामु, सिद्ध तु धवलु जयधवलु णाम । -म, पु।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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