SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धवला-टीका : २१७ प्रामाणिकता इन टीकाग्रन्थोको इतना महत्त्व मिलनेका कारण वीरसेनका बहुश्रुत होना तो है ही, जिसका परिचय धवला तथा जयधवलाकी प्रत्येक पक्तिसे मिलता है, साथ ही वीरसेनकी प्रामाणिकता भी उसका एक कारण है। वीरसेन स्वामीको जो कुछ प्राप्त हुआ उसे उन्होने अपनी शैलीमें ज्यो-का-त्यो निबद्ध कर देना ही उचित समझा । जिन विषयो पर उन्हें दो प्रकारके मत मिले, उनपर उन्होने दोनो परस्पर विरोधी मतोको ज्यो-का-त्यो दे दिया और किसी एक पक्षमें अपना मत अथवा झुकाव व्यक्त नही किया। इस तरहके उदाहरण दोनो टीकाओमें बहुतायतसे मिलते है। यहाँ एक उदाहरण दे देना पर्याप्त होगाउससे ग्रन्थकारकी निर्मलताके साथ-ही-साथ जैनपरम्पराको प्रामाणिक बनाये रखनेकी प्रकृति पर भी प्रकाश पडता है। अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती जीव सतकम्मपाहुडके अनुसार पहले सोलह कर्मप्रकृतियोका क्षय करके तव आठ कषायोका क्षय करता है और कसायपाहुडके अनुसार पहले आठ कपायोको क्षय करके पश्चात् सोलहका क्षय करता है । इसके सम्बन्धमें वीरसेन स्वामीने जो लिखा है, सम्बद्ध सैद्धान्तिक चर्चाको छोडकर उसका संक्षिप्त आशय यहा दिया जाता है "शङ्का-दोनो वचनोमेंसे कोई एक वचन ही सूत्ररूप हो सकता है क्योकि जिन अन्यथावादी नहीं होते । अत उनके वचनोमें विरोध नही होना चाहिये? ___समाधान-आपका कहना ठीक है किन्तु ये दोनो जिनेन्द्रके वचन न होकर उनके पश्चात् हुए आचार्योके वचन है । इसलिये उनमें विरोध होना सभव है । शका-तो फिर आचार्योंके द्वारा कहे गये सतकम्मपाहुड और कसायपाहुड सूत्र कैसे हुए। समाधान-तीर्थकरोके द्वारा अर्थरूपसे प्रतिपादित और गणधरोके द्वारा ग्रन्थरूपमें रचित बारह अग आचार्यपरम्परासे निरन्तर चले आते थे। परन्तु कालके प्रभावसे वुद्धिके उत्तरोत्तर क्षीण होने पर और उन अगोको धारण करने वाले योग्य पात्रके अभावमें वे उत्तरोत्तर क्षीण होते गये। इसलिये आगे श्रेष्ठ बुद्धि वाले पुरुषोंका अभाव देखकर, अत्यन्त पापभीरू और गुरुपरम्परासे श्रुतार्थको ग्रहण करने वाले आचार्योंने तीर्थविच्छेदके भयसे अवशिष्ट वचे श्रुतको पोथियोमें लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें असूत्रपना होनेका विरोध है। १ पट्ख० पु. १, पृ० २१७-२२२ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy