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________________ चूणिसूत्र साहित्य · २०९ तभी दोनोकी सग्या मिलकर आठ हजार परिमाण इग ग्रन्थ ( तिलोयपण्णत्ती) का वैठता है (जै० सा० ३० वि० प्र०, पृ० ५८९ )। किन्तु सिद्धान्तगाली प० होगाउने गगायपाहःगुत्तको प्रस्तावनाम उक्त अन्तिम गायाये उक्त अपमा भिन्न असे निया है । उन्होंने गाथा उद्धृत करके लिसा है--'इसंग बतलाया गया है कि भाठ मारणोके म्बस्पका प्रतिपादन करने वाली कम्पनीका और उगमो चूणिका जितना प्रमाण है उतने ही आठ हजार प्रमाण इस तिलोयाण्णतोगा परिगाण है ।' गाया प्रथम चरण 'चुपिणराम्ब-यारणसम्ब' में'' के स्थान पर 'त्य' पाठभेद भी मिलना है। पण्डितजीने 'स्व' के स्थानमे 'टु' मानकर 'अट्टकरण' शब्द निष्पन्न किया है। न कि कर्मप्रतिमें आठ करणोके स्वम्पका कथन है अतः 'अट्ठकरण' नाग फर्गप्रकृतिके लिए ही प्रयुक्त किया है, ऐसा प० जीका विचार है । और यत आप कर्मप्रकृति की चूणिका रचयिता आचार्य यतिवृपभको मानते है, इसलिये आपने उक्त प्रकारका आर्य किया है। कर्मप्रकृतिकी चणिक कर्ताका विचार करते समय इस बात पर प्रकाश डाला जायेगा कि यतिवपम उमफे फर्ता नहीं हो सकने। यहां तो हम इतना ही लिसना उचित समझते हैं कि पण्डितजीने ति० ५० को उक्त अन्तिम गाथाका जो अर्थ किया है वह अपनी उक्त कल्पनाके आधार पर उतावलीमे कर डाला है। यह ठीक है कि कर्मप्रकृतिमें आठ करणोफे भी स्वरूपका कथन है। किन्तु आठ करणोके सिवाय उदय और सत्तामा भी कथन है और पहली गाथामें ही आठ करणोके साथ उदय और गत्वके भी कयनकी प्रतिज्ञा ग्रन्थकारने की है। अत ऐसे ग्रन्यका नाम 'अट्टकरणगरुब' नही हो सकता। दूमरे, प्रकृत कम्मपयडी या कर्मप्रकृतिका 'अट्टकरणसरूव' नाम भी था, इसका एक भी ममर्थक प्रमाण मेरे देयने में नहीं आया। जिस चूणिको पडितजी यतिवृपभकृत मानते है उसमें भी प्रथम गाथाकी उत्यानिकारुपसे 'कम्मपयडीसगहणी' नामका निर्देश करते हुए उसे सार्थक बतलाया है। तीसरे, 'चुण्णिसरूवठ्ठकरणसरुव'का अर्थ 'कर्मप्रकृति और उसकी चूणि' करना भी कष्टसाध्य ही है। उसका सीधा-सा अर्थ होता है चूणि और अट्ठकरण ( कर्मप्रकृति ) । अट्ठकरणकी चूणि यह अर्थ तो नही होता । फिर कोई ग्रन्थकार अपने ग्रन्थका परिमाण बतलानेके लिए अपनी कृतियोके सिवाय अन्य कृतिका निर्देश क्यो करेगा । अत प० जीने तिलोयपण्णत्तीकी अन्तिम गाथाके स्त्रकल्पित अर्थके आधारपर जो कर्मप्रकृतिचूणिको यतिवृपभकी कृति बतलाया है वह ठीक नही है। इसी तरह सतरीचूणि तथा शतकचूणि भी यतिवृपभकृत नहीं है । इस पर विशेष प्रकाश चूणियोके कर्तृत्वके विवेचनके समय डाला जायेगा।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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