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________________ २०८ : जनसाहित्यका इतिहास ज्ञान किससे मिला ? अत. यतिवृषभ ऐसे समयमें होने चाहिये जव कर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान अवशिष्ट था। तीसरे, यह आगे बतलायेंगे कि छक्खडागम और कसायपाहुडमें अनेक वातोको लेकर मतभेद है, मत उन दोनोको तत्रान्तर कहा गया है। जो मतभेद वतलाया जाता है उसका आधार कसायपाहुड पर रचित चूर्णिसूत्र है। वही उस मतभेदका प्रतिनिधित्व करते है । उन्ही परसे धवला व जयघवलामें भूतवाल और यतिवृपभके मतभेदकी चर्चा देखनेमें आती है। उस चर्चापरसे यतिवृषभका व्यक्तित्व भूतवलिके समकक्ष प्रतीत होता है। दोनोके सूत्रोकी भी तुलनासे यही बात प्रमाणित होती है। अत यतिवृपभ भूतवलि पुष्पदन्तसे विशेष अर्वाचीन प्रतीत नहीं होते। और जैसा कि हम आगे स्पष्ट करेंगे। चूंकि धरसेन और नागहस्ती लगभग समकालीन प्रमाणित होते है, क्योकि दोनोका समय वीर-निर्वाणकी सातवी शताब्दीमें थोडा आगे-पीछे आता है। अत यतिवृषभ भी उसी समयके लगभग होने चाहिये । यतिवृषभकी रचनाएं ___आचार्य यतिवृषभकी कृतिरूपसे दो ग्रन्थ प्रसिद्ध है-एक प्रकृत चूर्णिसूत्र' और दूसरी तिलोयपण्णत्ती। दोनो उपलब्ध है और हिन्दी अर्थके साथ छपकर प्रकाशित हो चुके है। तिलोयपण्णत्तीका विषय लोकरचनासे सम्बद्ध है, अत उसका परिचय आदि इस ग्रन्थके लोकरचना विपयक प्रकरणमें दिया जायगा। तिलोयपण्णत्तीकी अन्तिम गाथामें तिलोयपण्णत्तीका प्रमाण आठ हजार बतलाते हुए लिखा है कि चूणिस्वरूप और षट्करणस्वरूपका जितना प्रमाण है उतना ही तिलोयपण्णत्तीका परिमाण है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि षट्करणस्वरूप नामक भी कोई ग्रन्थ यतिवृषभकृत होना चाहिये । प० जुगलकिशोर मुख्तारका कहना है कि 'करणस्वरूप' नामक भी कोई ग्रन्थ यतिवृषभके द्वारा रचा गया था जो अभी तक अनुपलब्ध है। बहुत सम्भव है कि वह ग्रन्थ उन करणसूत्रोका ही समूह हो, जो गणितसूत्र कहलाते है और जिनका कितना ही उल्लेख त्रिलोकप्रज्ञप्ति, गोम्मटसार, त्रिलोकसार और धवला जैसे ग्रन्थोमें पाया जाता है। चूर्णिसूत्रोको सख्या चूकि छ हजार है अतः करणस्वरूप ग्रन्थकी संख्या दो हजार श्लोक परिमाण समझनी चाहिये, १. श्री वीरशासन सघ, कलकत्तासे प्रकाशित । २ जीवराज ग्रन्थ माला, शोलापुरसे प्रकाशित । ३. चुण्णिसरूवछक्करणसरुपपमाण होइ कि जतं । अट ठसहस्सपमाण तिलोयपण्णत्ति णामाए ॥७७॥ ति, प., भा २, पृ. ८८० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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