SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ : जैनसाहित्यका इतिहास दक्षिणको तमिल और कनडी भाषामे भी जैन गाहित्य काग नही है । चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्यकालके अन्तमें श्रुतकेवली गद्रबाहु मगधमे भिक्ष पउने पर एक बडे साधु-मघके गाथ दक्षिणकी ओर चले गये थे। उसके बादगे दक्षिण जैन सस्कृतिका केन्द्र बन गया और लिंगायतोके अत्याचारोगे भारम्ग होने तक वहां जैनोका अच्छा प्रभाव रहा। दिगम्बर परम्पराके अधिकाग प्रानीन गन्यकार दक्षिणके थे । अत उन्होने प्राकृत और संस्कृतकी तरह कनदी और तमिलमे भी खूब रचनाएँ की। अतएव कनडी और तमिल भाषामे भी प्रचुर जैन गाहित्य उपलब्ध है । इग तरह जैन माहित्य बहुत विस्तृत है । वर्गीकरण और कालक्रम दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो परम्पराओके गाहित्यमे गमस्त जैन गाहित्यका वर्गीकरण विपयकी दृष्टिमे चार भागोमे किया है। वे चार विभाग है-प्रथगानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग । पुराण, चरित आदि आख्यानग्रन्य प्रथमानुयोगमें गर्भित किये गये है। करणगब्दके दो अर्थ है-परिणाम और गणितके सूत्र । अतः खगोल और भूगोलका वर्णन करनेवाले तथा जीव गौर कर्मके सम्बन्ध आदिके निरूपक कर्मसिद्धान्त विषयक ग्रन्य करणानुयोगमें लिए गये है। आचार-सम्वन्धी साहित्य चरणानुयोगमे आता है और द्रव्य, गुण, पर्याय आदि वस्तुस्वरूपके प्रतिपादक ग्रन्थ द्रव्यानुयोगमे आते है। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार यह अनुयोग-विभाग आर्यरक्षितसूरिने किया था। अन्तिम दसपूर्वी आर्यवनका स्वर्गवाम वि० स० ११४ में हुमा । उसके बाद आर्यरक्षित हुए। उन्होने भविण्यमें होनेवाले अल्पवुद्धि शिष्योका विचार करके आगमिक साहित्यको चार अनुयोगोमें विभाजित कर दिया। जैसे, ग्यारह अगोको चरणकरणानुयोगमें समाविष्ट किया, ऋपिभापितोका समावेश धर्मकथानुयोगमें किया, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदिको गणितानुयोगमे रखा और बारहवें अग दृष्टिवादको द्रव्यानुयोगमें रखा (दिगम्बर परम्परामें जिसे प्रथमानुयोग नाम दिया है उसे ही श्वेताम्बर परम्परामें धर्मकथानुयोग कहा है और श्वे० परम्परामें जिसे गणितानुयोग सज्ञा दी गई है, उसका समावेश दिगम्बर परम्पराके करणानुयोगमें होता है। __ इस तरह विपयकी दृष्टिसे जैन आगमिक तथा तदनुसारी अन्य साहित्य चार भागोमें विभाजित है। डा० विन्टरनीट्सने लिखा है कि यद्यपि जैनधर्म बौद्धधर्मसे प्राचीन है तथापि ४१ आव०नि० गा० ७६३-७७७ । '२, हिं० ई.लि., भा॰ २, पृ००४२६ । पहा
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy