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________________ चूर्णिसूत्र साहित्य : १८३ प्रक्रियामें अन्तर है । इसीसे जयधवलाकारने चूर्णिसूत्रोको विभाषाग्रन्थ ' अथवा विभाषासूत्र भी कहा है और चूर्णिसूत्रकारको विभाषासूत्रकार कहा है । उक्त वृत्तिसे विभाषामें अन्तर है । जो दोनोके लक्षणोसे स्पष्ट है । दर्शनमोहक्षपणानामक अधिकारमें चूर्णिसूत्रकारनेर परिभापाका भी निर्देश किया है और परिभाषाके पश्चात् सूत्रविभाषा करनेका निर्देश किया है । जयधवला ४ अनुसार गाथासूत्र में निवद्ध अथवा अनिबद्ध किन्तु प्रकृतमें उपयोगी जितना अर्थसमूह है उस सबको लेकर विस्तारसे अर्थका कथन करनेको परिभाषा कहते है । परिभाषाका अनुगमन पहले करना चाहिये, पीछे सूत्रविभाषा करनी चाहिये, क्योकि सूत्रपरिभाषा करनेसे सूत्रके अर्थ के विषयमें निश्चय नही किया जा सकता । विभापा और परिभाषा शब्दोका यह अर्थ अन्यत्र देखनेमे नही आता । साराश यह है कि चूर्णिसूत्र विभाषारूप है - उनके द्वारा गाथासूत्रोके द्वारा सूचित समस्त अर्थोका विस्तारसे कथन किया है। कही यह कथन गाथाके अवयवार्थपूर्वक भी किया है । गाथासूत्रोका निर्देशकरके उनका विवरण करना यह उनकी सामान्यशैली है । प्रकृतचर्चापर और भी प्रकाश डालनेके लिये बन्धक नामक अधिकारकी व्याख्यानशैलीका चित्रण किया जाता है | इस अधिकारके प्रारम्भमें ही यह चूर्णिसूत्र माता है—' वधगेत्ति एदस्स्स वे अणिओगद्दाराणि । त जहा, 'बधो च सकमो च' । इसके द्वारा चूणिसूत्रकार वन्धक अधिकारके प्रारम्भ होनेकी तथा उसके अन्तर्गत अनुयोगद्वारोकी सूचना करके 'एत्य सुत्तगाहा' इस उत्थानिकाके द्वारा गाथाका अवतरण करके, उसके बाद गाथासे सूचित होनेवाले अर्थकी सूचना देकर पदच्छेदपूर्वक गाथाके प्रत्येक पदका व्याख्यान करते है । इस अधिकारका मुख्य विषय 'सक्रम' है । अतः १ 'सहि एदस्सेवात्यस्स फुर्डीकरणटुमुवरिम विहासागथमाढवेइ' ज० ध० प्र े० का० पृ० ७१८७१२३, ७१०५, ७१२७, ७१३४ । २ एतो अदीदासेसपबघेण विहासिदत्थाण गाहासुत्ताय सरूवर्णिदेस कुणमाणो विहासासुत्तया इदमाह --- ज० ध० प्र े० का०, पृ० ६१७९ । 1 पा०सू० पृ० ६४२ । पदचे दाहिमुहेण जा ३. 'पच्छा सुत्तविहासा तत्थ ताव पुन्व गमणिज्जा परिहास | क० ४ ' का सुत्तविहासा णाम ? गाहासुत्ताणमुच्चारण काढूण तेर्सि अत्थ परिक्खा सा सुत्तविहासा ति भण्णदे । सुत्त परिहासा पुण गाहासुत्तणिवद्ध - मणिवद्ध च पयदोवजोगिजमत्थजाद त सव्व घेत्तण वित्थरदो अत्थपरूवणा । सा ताव पुव्वमेत्थाणुगतव्वा पच्छा सुत्तविहामा कायव्वा । किं कारणम् ? सुत्तपरिभासमकादूण सुत्तविहासाए कीरमाणाए सुत्तत्थविषयणिच्छयाणुववत्तीदो- ज० ६० प्र० का०, पृ० ६०१७-१८ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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