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________________ १८२ • जनसाहित्यका इतिहास सूविभापा। सूपके पदोका उच्चारण न फरके सूपके द्वारा गचित समस्त अर्थका विस्तारसे कथन करनेको प्रमपणाविभापा कहते है। और गायागूोंके अवयवार्थका परामर्ग करते हुए रायका स्पर्श करनेको रान विभापा कहते है । चूणिसूत्रकारने काही तो गाथागूत्रोको सूयविभागा की है और कही प्रस्पणाविभापा की है। इसीसे जयघवलाकारने उन्हे विभापासूत्रकार' के नाम भी अभिहित किया है। इन दोनो विभापाओगम सूपविभाषा गाथाके पदच्छेदपूर्वक होती है क्योकि अवयवार्थका कथन पदच्छेद विना नहीं हो सकता। किन्तु ऐसी गाथाए स्वल्प ही है, जिनका चूणिमूयकारने पदन्छेदपूर्वक व्याख्यान किया है। अत बहुत कम गाथाओकी सूत्रविभापा पाई जाती है, उसके विपरीत अधिकाश गाथामओयो प्रस्पणाविभापा की गई है। उदाहरणकेलिये गाथानख्या २२ का व्याख्यान पदच्छेदपूर्वक किया है और इमका कारण यह है कि यह एक ही गाथा प्रारम्भके कई अधिकारोको आधारभूत है। इमीसे उसका पदच्छेद करके प्रत्येक पदको विभाषा की गई है। इसी तरह सक्रम अधिकारके अन्तर्गत प्रकृतिसक्रमको तीन गाथाओका भी पदच्छेदपूर्वक ही अर्थ किया है। यद्यपि ये गाथाए सरल है किन्तु उनमें उक्त अधिकार में आगत विपयोकी सूचना है। अत: उनका पदच्छेद करके उनके द्वारा सूचित अर्थका विस्तारसे कथन किया है। डा. वासुदेवशरण अग्रवालने लिखा है कि 'पाणिनिने दो अर्थोमें वृत्तिशब्दका प्रयोग किया है-एक तो शिल्प या रोजगारके लिये दूसरे ग्रन्यकी टीकाको भी वृत्ति कहा जाता था। पाणिनिसूत्र 'वृत्तिसर्गतामने पुक्रम' (१।३।३८) की काशिकामें एक उदाहरण दिया है-'ऋक्षु अस्य क्रमते बुद्धि'। ऋग्वेदकी व्याख्यामें इनकी बुद्धि बहुत चलती है। इस उदाहरणमें वेदमत्रोके व्याख्यानको वृत्ति कहा है । मत्रोके प्रत्येक पदका विग्रह और उनका अर्थ यही इन आरम्भिक वृत्तियोका स्वरूप था। जैसा शतपथकी मंत्रार्थशलीसे ज्ञात होता है। पतञ्जलिने व्याकरणसूत्रोके व्याख्यानके लिये भी उसी शैलीका उल्लेख किया है।' ___यह हम लिख आये कि जयधवलाकारने यतिवृपभके चूणिसूत्रोको वृत्तिसूत्र कहा है। किन्तु वेदमत्रोके व्याख्यानरूप वृत्तिसे उनके इन वृत्तिसूत्रोकी १ 'एत्तो एदासिं गाहाण पदच्छेदो कायम्बो होदि, अवयवत्थवक्खाणे पयारतराभावादो ।' -ज. ध० प्र० का० पृ० ३४७६ । २ पा० भा०, पृ० ३३२ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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