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________________ चूर्णिसूत्र साहित्य · १७३ 'चूण्णिसरूव' का निर्देश आया है जो यतिवृपभकृत चूर्णिसूत्रोके लिये ही आया है। इस गाथाके यतिवृपभकी कृती माने जानेसे यह मानना पडता है कि यतिवृपभने स्वय अपनी इस कृतिको चूणि' सज्ञा प्रदान की थी। दि० जनसाहित्यमें चूर्णिसूयके नामसे प्रसिद्ध अन्य किसी रचनासे हम अवगत नही है । किन्तु धवलाटीकामें वीरसेनस्वामीने पट्खण्डागमके सूत्रोको भी 'चुण्णिसुत्त' नामसे अभिहित किया है। परन्तु उन्ही सूत्रोको चूर्णिसूत्र कहा है जो गाथाके व्याख्यानरूप है । वात यह है कि वेदनाखण्डमें कुछ गाथाएं भी आती है जो सूत्र उनके व्याख्यानरूप है उन्हीको धवलाकारने चूर्णिसूत्र' कहा है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि गाथाओके व्याख्यानरूप सूत्र चूर्णिसूत्र कहे जाते थे। जयधवलाकारने यतिवपभाचार्यके चूर्णिसूत्रोको वृत्तिसूत्र कहा है । जिस प्रसगसे जयधवलाकारने वृत्तिसूत्रका लक्षण दिया है, उस प्रमगको भी यहां दे देनेसे उसपर विशेषप्रकाश पडेगा । प्रसग यह है कि चूर्णिसूत्रोमें एक जगह केवल दोका अक रखा है। उसपर शकाकार पूछता है कि यह दोका अक यहाँ क्यो रसा ? तो जयधवलाकार उत्तर देते है कि अपने हृदयमें स्थित अर्थका ज्ञान करानेके लिये यतिवृषभाचार्यने २ का अक रखा है। इसपर शकाकार पुन पूछता है कि उस अर्थको अक्षरोके द्वारा क्यो नही कहा? तो जयधवलाकार उत्तर देते है कि वृत्तिसूत्रका अर्थ कहनेपर चूर्णिसूत्रके उपयुक्त कोई नाम ही नही रहता क्योकि जिसमें वृत्तिसूत्रका अर्थ भी कहा गया हो उसे वृत्तिसूत्र नही कहा जा सकता। 'जो सूत्रका ही व्याख्यान करता है तथा जिसकी शब्द रचना सक्षिप्त है और जिसमें सूत्रके समस्त अर्थको सग्रहीत कर दिया गया है उसे वृत्तिसूत्र' कहते है । वृत्तिसूत्रका उक्त लक्षण यतिवृपभके चूर्णिसूत्रोमें पूर्णतया घटित होता है क्योकि उसकी शब्द रचना सक्षिप्त है फिर भी उनमें गाथासूत्रोका समस्त अर्थ सगृहीत है। सभव है जयधवलाकारने वृत्तिसूत्रका यह लक्षण चूर्णिसूत्रोकी दृष्टि रखकर ही बनाया हो। ____ किन्तु इस प्रकारके वृत्तिसूत्रोको चूर्णिसूत्र नाम देनेका हेतु क्या है यह पूर्वमें लिखा जा चुका है। महत्त्व चूणिसूत्रोका महत्त्व कसायपाहुडकी गाथाओसे किसी तरह कम नही प्रतीत १ 'एदस्स गाहासुत्तस्म विवरणभावेण रचिद उवरिम चुण्णिसुत्तादो।' -पटख०, पु० १२, पृ० ४१ । २ क. पा०, भा॰ २, पृ० १४१ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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