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________________ १७२ . जनसाहित्यका इतिहाग गाथा ५८९,) मादि पदोगे गा प्राट है कि मणिगूयोग निहित अर्थ उन्चारणाचार्य या व्याग्यानानायों दाग वगन्तग नया गननीग है। चूणि गूगोगे विश्लेषण के मम्वन्धमे 'जगायलाटीका' में भी गतिपय तथ्य उपलग है। हग यहां ग पिगको प्रग्नुनगार 'णि गुर' माहित्य विधाके रनम्प निर्धारणका प्रयाग गरेंगे। यारतवम या माहिग विधा वृत्यात्मक प्रेमी मोलिक विना है, जिगम बीज पदोकी पत्तिय गाग विषय गम्बन्धी नये तथ्य भी गतित है। चूणि गूगोग प्रस्तुत की गयी तिगां गागा, गाप्यात्मक नहीं । साहित्य विधाको मनोवैज्ञानिक पीठिका बतलाया जाता है कि मृल आगग सम्बन्धी रचनागोग तताल ही मूमात्मनः पत्तियां गिी जाती है, जो उत्तरकालीन वातिगारा पूर्व मग रहती है, एंगे गूगोकरी माग्या भी उत्तरकालम टीगाकारों द्वारा लिपी जाती है। जयधवलाकी मगल गावाभोमे यतिवषमको रिति गुत्तात्ता'-वृत्तिमूत्र फर्ता लिगा है। और जगधरला अन्दर तो जुग्गिगुत करगी बहुतायत उनका उल्लेरा पाया जाता है। इसी तरह पटगण्ठागमणी' टीका धवलामें भी चुण्णिसुत्त नामसे उनका निर्देग पाया जाता है। इन्द्र नन्दिने अपने श्रुतावतारम' वृत्तिान और चूणिगून दोनो नामी का प्रयोग बढे टगरी किया है। उन्होंने लिखा है कि उसके पश्चात् यतिवृपमने उन गाथाओ पर वृत्ति सूम स्पर्म छ हजार प्रमाण चूणि सूनोकी रचना की । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यतिवृपभकी इस कृतिका नाम चूर्णिगूत्र है और कपायपाहुसकी वृत्तिस्प होनेरो उन्हें पृत्ति सूत्र कहते है। धवलामें इन्हें पाहुड' चुण्णिसुत्त भी कहा है। कसायपाहुउका सक्षिप्त नाम पाहुड करके उसके चूणिसून होनेरो पाहुइचुण्णिसुत्त कहना उचित ही है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्तिम गाथामे त्रिलोकप्रज्ञप्तिका परिमाण बतलाते हुए १. 'सो वित्तिसुत्तकत्ता जश्वसो मे वर देऊ ।' -क. पा., भा० १, पृ० २। २. क. पा० भा० १, पृ०५, १२, २७, ८८, ९६ । ३. 'पुणो सो अत्थो आशरियपर पराए आगतूण गुणहरभडारय सपत्तो । पुणो तत्तो आइरियपरपराए आगतूण अजमखु णागहस्थिभटारयाण मूल पत्तो । पुणो तेहि दो. हिवि कमेण जदिवसह भारयस्म वक्साणिदो, तेणवि अणुभागसंकमे सिस्साणुग्गहट्ठम चुण्णिसुत्ते लिहिदो।' -पटखें, पु० १२, पृ० २३० । ४. 'तेन ततो यतिपतिना तद्गाथा वृत्तिसूत्ररूपेण । रचितानि पट्सहस्रग्रन्थान्यथ चूणि. सूत्राणि ॥ १५६ ॥ तत्त्वानु ०, पृ० ८७ । ५ 'एयत्त कत्थ सिद्ध ? पाहुड चुण्णिसुत्त सुप्पसिद्ध। -पटख, पु० १२, पृ० ९४ । ६. 'चुण्णिसरूव छकरणसरूवपमाण होइ किं ज त । असहस्सपमाण तिलोयपण्णत्ति णामाए ॥७७॥ -ति० प० भा० २, प०८८२ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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